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पहुँचे। छत किले की दीवार से कुछ ऊँची थी। उस पर चार पहरे वालों के होने कासा आभास उस अंधेरे में हुआ। बिट्टियण्णा वैसे ही नीचे छप्त की दीवार से सटकर बैठ गया। बाकी लोगों ने भी वैसा ही किया।
विट्टिदेव ने कहा, "पहरेदार हैं, जाग रहे हैं। अब यहाँ क्या काम है?"
विट्टियष्णा ने धीमे स्वर में कहा, "किले के फाटक को मजबूत बनाये रखने के लिए उस पर पत्थर की सिल्लियाँ बिछा रखी हैं। उन सिल्लियों में बड़े-बड़े चौकोर छेद बनाकर उनमें ठीक बैठाने के लिए उतने ही मोटे लकड़ी के बड़े-बड़े शहतीर चार-चार के हिसाब से ऊपर से प्रत्येक दरवाजे पर लटका रखे हैं। इस तरह द्वारों को सुरक्षित बना रखा है।"
बिट्टिदेव ने उसी तरह धीमी आवाज में पछा, "तुमको कैसे मालूम ?" "मैं पहले अकेला आकर, सब देख गया हूँ।" "अकेले कैसे आये?"
"किले की दीवार पर काली रस्सी डालकर उसके सहारे ऊपर चढ़कर वहाँ पहुंचकर देख आया।"
"ठीक। अब?" "मुर्गे की पहली बौंग के साथ ये पहरेदार सो जाएंगे।" "इनके बदले पहरेदारों का दूसरा दल नहीं आएगा?"
"ऐसा नहीं लगता कि दूसरा दल आएगा। मैं पहले जब आया था तब भी ऐसा ही देखा था।
"हम यहाँ इतने लोग हैं, कहीं कुछ आवाज हो तो जग नहीं जाएँगे?"
"जहाँ वे सोये पड़े होंगे, वहीं उन्हें खतम कर देना होगा। इस वक्त यही एक रास्ता है।"
"ऐसा नहीं करना। सोने वालों को मार डालना धर्म-संगत नहीं। हम तेजी से काम करें तो उनकी आवाज निकलने से पहले ही, एक-एक के मुंह में कपड़ा तूंसकर, पीछे की ओर से हाथ-पैर बाँधकर चुप बिठा सकते हैं 1" यम्पलदेवी ने कहा।
"आवाज होने पर बाकी लोग जाग जाएँ और लड़ाई छेड़ दें तो गड़बड़ हो जाएगान?"
"मुँह में कपड़ा दूंसने का काम मैं करूँगी। इतने में किसी को पीछे की ओर कसकर हाथ बाँध देने होंगे। बाद में पैर भी याँध दिये जा सकते हैं।" बम्मलदेवी ने कहा।
"एक व्यक्ति पर पहले प्रयोग करके देखेंगे। फिर शेष पहरेदारों के पास हमारे साथी सशस्त्र तैयार रहें। अगर कोई अनहोनी हो जाए तो तुरन्त सामना कर सकेंगे। हमारी सेना मुर्गे की पहली बौंग के साथ दक्षिण के इस दरवाजे के पास पहुँच जाएगी।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 361