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"हालत ही ऐसी है। केवल मुझ अकेले की यह स्थिति नहीं, हमारी सेना की युवा पीढ़ी के बहुत-से लोग इस घिसटते हमले से ऊब उठे हैं। अभी तो दुश्मन का ध्यान पूर्व और उत्तर की ओर होने से, जो काम हम महीनों में नहीं साध सके, उसे एक ही रात में पूरा कर सकते हैं।"
"हमें तुम्हारे साथ चलने की इच्छा हो रही है।"
"सन्निधान भी जा रहे हों तो मुझे साथ रहना ही होगा न?" बम्मलदेवी ने कहा।
"एक काम करेंगे। सन्निधान और रानीजी वेश बदलकर चाहें तो मेरे साथे किले पर चढ़कर आ सकते हैं। मगर आप किले के अन्दर उतरने का खतरा मोल नहीं लेंगे। ऊपर से ही हमारी गतिविधि देख सकते हैं। सन्निधान के लिए एक रक्षकदल तो रहेगा ही। फिर भी यदि कहीं कुछ खतरे की सम्भावना हो तो उतरकर वापस अपने तम्बू में आने के लिए राजी होना होगा।"
"तो हमारे साथ रानीजी क्यों?" "वह तो पट्टमहादेवीजी का आदेश है न?" बिट्टियण्णा ने ही कहा। "तो काम कब शुरू होगा?"
"सारी तैयारी है। केवल निभान की आ" जी की सील है ममान को चलना ही हो तो वेश बदलने तक की प्रतीक्षा करूँगा। नहीं तो अभी इसी क्षण चल देने के लिए तैयार हूँ।"
"ठीक, एक-आध घण्टे में चल देंगे।" "जो आज्ञा।" कहकर बिट्टियण्णा तम्यू से बाहर आ गया।
"नियोजित रीति से बिट्टियण्णा, रानी बम्मलदेवी, महाराज बिट्टिदेव और उनका अंगरक्षक दल, तथा बिट्टियण्णा के साथी, करीब सौ लोग किले की दीवार पर चढ़े। बिट्टियण्णा की सूझ आकस्मिक नहीं, यह बात बिट्टिदेव को तुरन्त मालूम पड़ गयी। उन्होंने बम्मलदेवी के कान में कहा, किले पर चढ़ने के लिए बिट्टी ने जो व्यवस्था की है, उसके लिए काफी श्रम और समय लगा होगा। इसका निर्माण कार्य कैसे और कब किया, इसकी और किसी का भी ध्यान नहीं गया है। इसीलिए डाकरसजी ने बिट्टी की इतनी प्रशंसा की।"
कुछ सरकने की आवाज सुनाई पड़ी। पूर्व निर्णय के अनुसार सभी लोग एक कतार में बैठ गये। उनकी काली ओढ़नी उस अंधेरे में आँखों को धोखा देने में सहायक बनी। काफी समय बीतने पर भी उधर किसी के आने का आभास सक नहीं हुआ। बिष्टियण्णा ने धीमे से कहा, "सन्निधान इस तरफ आएँ।" उसके साथ बिट्टिदेव और बप्पलदेवी एवं अंगरक्षक दल आगे बढ़ने को तैयार हुए। बिट्टियण्णा आगे बढ़ा। बाकी लोगों ने उसका अनुगमन किया। दक्षिण की तरफ के किले के द्वार की छत के पास
360 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग बार