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कुशलता से यह ठीक-ठीक आगे बढ़ने लगा है। अब मुझे लग रहा है कि जीत हमारी ही होगी। क्यों दण्डनायक जी?"
"हमारे ज्योतिषी ने जो मुहूर्त ठहराया वह भी तो ऐसा ही है।''
"तलवार पकड़नेवाले के दिमाग में मुहूर्त का हिसाब-किताब नहीं बैठत्ता । हम घड़ी- मुहूर्त देखते बैठनेवाले नहीं। हमारा काम तो है कार्य में इट जाना। हमारा विश्वास है कि प्राच-4 से राष्ट्र के प्रति निष्ठा से लड़ने पर सेन्य-शक्ति हो हमें विजय दिलाएगी। हम चाहे कितने ही अनुभवी रहे हों, इस हमले के बारे में बिट्टियण्णा की सलाह के लिए मैं ऋणी हूँ। इसका जो फल मिलेगा उसके लिए वही अधिकारी है। उसे अब गौरव से भी अधिक, प्रोत्साहन मिलना चाहिए । इसलिए युद्ध के समाप्त होते ही 'जब विजयोत्सव मनाएँगे तब उसे दण्डनायक का बड़ा पद दें तो सही प्रोत्साहन देने का-सा होगा।"
___ बिट्टिदेव ने तुरन्त डाकरस को जवाब नहीं दिया। एक तरह से आश्चर्यचकित हो उन्हें देखते रहे।
"क्यों, सन्निधान को मेरो सलाह अनुचित लगी?" कुछ संकोच से डाकरस ने पूछा।
"अनुचित नहीं, स्वभाव से बाहर लगी।" बिट्टिदेव ने कहा।
बिट्टिदेव की बात डाकरस की समझ में नहीं आयी। उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखायी। संकोच से इतना ही कहा, "क्षमा करें। सन्निधान का मतलब समझ नहीं सका।"
"आपके दो बेटे हैं।"
"हैं प्रभु! उन्हें भी मान्यता देकर राजमहल ने हमारे वंश को गौरवान्वित किया है। उससे अधिक और क्या चाहिए?"
''इसी को हमने स्वभाव के बाहर कहा। मनुष्य का स्वभाव कूपमण्डूक का सा होता है। उसका यह सहज स्वभाव होता है कि वह अपने चारों ओर की दुनिया को ही सब-कुछ मानता है, उससे परे और कुछ नहीं। योग्यता और दक्षता अपनों की सुरक्षित धरोहर मान बैठता है। स्थान-मान जो भी मिले, सब अपनों को ही मिलता चाहिए, ऐसा समझता है। ऐसी दशा में आप अपने बेटों को छोड़कर, बिट्टियण्णा के विषय में इस तरह के पुरस्कार की बात कहें तो आश्चर्य होगा ही।"
"सन्निधान शायद यही समझते होंगे कि मेरा भी स्वभाव मेरी सौतेली माँ कासा ही होगा। हमारे पिताजी को विनयादित्य प्रभु ने, मातृश्री केलेयब्बरसीजी ने किस तरह से पुरस्कृत किया था, क्यों किया था सो भी मुझे याद है फिर हमारी सौतेली माँ ने अपना स्वार्थ साधने के लिए क्या-क्या किया, सो भी अच्छी तरह जानता हूँ। योग्यता को मान्यता देना हमारे वंश का स्वभाव है।"
354 :: पमहादेवी शान्तला : भाग चार