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"सच कहा है। मेल नहीं बैठे, तो हम क्या करें?" "राजधानी से रवाना हुए कितने दिन हुए?" "वहाँ उनसे मिलने के पांच-छह दिन पहले शायद।" "तो तुम्हारे मालिक तुम्हारे पीछे ही चल दिये होंगे?"
"नहीं तो वहां उन्हें कैसे देखते ? वास्तव में मैंने उनकी वहाँ होने की अपेक्षा नहीं की थी।"
"क्यों?"
"हमें जो काम समभा , कर लें। यह उन्हें विश्वास है। इसलिए हमारे पोछे ही वे आ जाएंगे, इसको हमें कल्पना भी नहीं थी।"
"वेण्णमय्या ने कहा न कि उस बूढ़े ने चीथड़े पहन रखे थे।" "सच है।" ।"ऐसे गरीब की सेवा से तुम्हारा पेट भर जाता है?" "मुझे देखने पर कैसा लग रहा है?" "न्यायपीठ से ऐसा सवाल नहीं किया जाता।" "और क्या करेंगे? मुफ्त का खाना खाकर मस्ती चढ़ी है।" हुल्लमय्या ने कहा। "सबको अपने जैसा समझना मनुष्य का शायद स्वभाव है।" गवाह बोला। "तुम्हारा मालिक अब कहाँ है?" "यहीं हैं।" "राजधानी में?"
"हम चाहें तो उसे देख सकते हैं?" 'जब चाहें तब देख सकते हैं।"
"तुमने कहा कि तुम्हारे मालिक ने उस गाड़ी में बैठे लोगों को देशद्रोही बताया। देशद्रोही होने के नाते उनके काम क्या थे?'।
"लोगों में अनबन पैदा करना। धर्म के नाम से उन्हें उकसाना। किसी षड्यन्त्र के बिना ही षड्यन्त्र होने की अफवाह फैलाना । जगह-जगह पर अलग-अलग किस्से गढ़कर झूठपृठ बातें सुनाना। लोगों की एकता को तोड़ना।"
"ये सब बातें तुमको कैसे मालूम पड़ी?"
"मैंने और मेरे साथी ने उनके पक्षवालों की तरह स्वाँग रचा तो मालूम पड़ गया। बाजार में लोग उनकी इच्छा के अनुरूप समाचार फैला रहे हैं, यह सब मालूम हुआ। अगर हम उन लोगों के पक्षवालों की तरह अभिनय न करते तो मालिक द्वारा सौंपा काम न हो पाता।"
"तो तुम्हारा कहना है कि अब तुम्हारे मालिक का काम बन गया है?"
344 :: पट्टमहादेवी शान्तला ; भाग चार