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के लिए न्यायपीठ का ध्यान आकर्षित होना चाहिए।"
"मस समझ में तो निश्चित रूप स य ही संग हैं।
"इनको पहली बार देखने के पूरे दो महीनों के बाद आपने इन्हें फिर से देखा है। इस दीर्घ अन्तराल में उन चेहरों को देखने में भ्रम भी हो सकता है। तब यह कैसे कह सकते हैं कि ये वही हैं ?"
"हो सकता है परन्तु इतनी बात सच है कि ये इस काम में लगे थे।"
"ठीक। हुल्लमय्याजी, आपके गवाह ने जो कुछ कहा, क्या वह वही है जो उन्होंने आपसे कहा था? या उसमें कोई अन्तर है? या जो बातें आपको बतायी थीं उनमें से कुछ बातें नहीं बतायी हों?''
"सब बातें ज्यों-की-त्यों बतायो हैं। परन्तु एक बात कहना भूल गया है।" हुल्लमय्या बोले।
"कौन-सी?"
"मैंने यह भी कहा था कि इन मायणजी के चाल-चलन पर भी सतर्क दृष्टि रहे।"
"ऐसा क्यों कहा था?"
"उन्होंने मुझसे कहा था कि राजधानी में यह खबर पहुंची है कि तलकाडु की तरफ चोलों की ओर से कुछ हलचल हो रही है। लेकिन ऐसी कोई बात ही नहीं थी। मेरी जानकारी के बिना यहाँ की कोई खबर राजधानी तक नहीं पहुंच सकती। इसलिए उन्होंने जो बताया उस पर विश्वास नहीं हुआ। शायद कुछ और बातें हो सकती हैं। उनके पीछे रहने पर ही उनका पता लग सकेगा, यही सोचकर मैंने ऐसा आदेश दिया था।"
उन्हें छिपाने की क्या आवश्यकता थी? आखिर आप दोनों एक ही राजघराने के सेवक हैं न?"
"सच है। फिर भी पता नहीं क्यों, मुझे ऐसा लगा। इसलिए मुझे स्वयं अपनी जिम्मेदारी पर ऐसा करना पड़ा।"
"किया सही, मगर उसका क्या परिणाम निकला?"
"कुछ नहीं। वे एक दिन भी अपने मुकाम को छोड़कर कहीं नहीं गये। दूसरे दिन वे कब चले गये, सो पता नहीं लगा। हाँ, भोजन के वक्त अपने मुकाम पर लौट आये। परन्तु आज के उनके कधन के अनुसार उनके आने का कारण कुछ और रहा जबकि बताया कुछ और इतना निश्चित हो गया।"
"फिर?" "वे कहाँ गये और क्यों गये, इस सम्बन्ध में अब वे स्वयं ही बता देंगे।" "आवश्यक होगा तो जान लेंगे।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 341