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पड़ीं। शान्तलदेवी के अचानक आगमन पर शिल्पी हड़बड़ा गये। उन्होंने जाकर स्थपति को खबर दी । वह भागा-भागा आया ।
स्थपति को देखकर शान्तलदेवी ने कहा, "बीच ही में चली गयी थी। आपने अन्यथा तो नहीं समझा न ?"
'राजकार्य की प्राथमिकता को न समझें, इतना अज्ञ तो नहीं हूँ।"
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'फिर भी कलाकारों का सोच और स्वभाव प्रायः एक तरह के हुआ करते हैं। कभी कोई स्फूर्ति जगती है तो कोई सुन्दर कल्पना मन में आती है। उसी क्षण यदि कोई रोक-रुकावट हो तो मन बहुत परेशान हो जाता है, इसलिए कहा। अच्छा, इस बात को रहने दीजिए: बताइए कि इन गणेशजी को कहाँ स्थापित करने को सोचा है ?" 'मैंने इस सम्बन्ध में कुछ सोचा ही नहीं। अलावा इसके कि पट्टमहादेवीजी के अभी इतने जल्दी लौट आने की कल्पना भी नहीं थी । "
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'मैं आ सकूँगी या नहीं, यह मैंने भी नहीं सोचा था। आने की बात थी भी नहीं । राजमहल में जाने पर ऐसी सूचना मिली कि सन्निधान शीघ्र ही राजधानी पधारने वाले हैं। हो सके तो काम जल्दी पूरा करवाएँ, यही कहना चाहती थी। यदि शिल्पियों की कमी हो तो कुछ लोगों को बेलुगोल से बुलवा सकते हैं। यदुगिरि में भी कुछ शिल्पी हैं, उन्हें भी बुला सकते हैं। केतमल्लजी की माताजी की इच्छा को पूर्ण करने के उद्देश्य से जल्दी में महादेव की प्रतिष्ठा की गयी है। परन्तु मन्दिर के बाहर का काम अभी पूर्ण नहीं हुआ है। सन्निधान के आ पहुँचने से पहले पूरा हो जाए तो मुझे सन्तोष होगा। बाहर की दीवारों पर बैठाने के लिए विग्रहों को किस क्रम से व्यवस्थित करने पर विचार किया है ?"
"यह सब मैंने रेखाचित्र में दर्शाया है।"
" आपके रेखाचित्र में शिवजी से सम्बन्धित मूर्तियाँ एक ओर और विष्णु से सम्बन्धित मूर्तियाँ दूसरी जगह बिठाने का संकेत है।"
"हाँ ।”
"मुझे एक बात सूझ रही है। शिव और विष्णु को बीचोबीच स्थापित करना अच्छा होगा। परन्तु यों करना शायद आपके लिए कठिन हो, क्योंकि मूर्तियों की चौड़ाई एक-सी नहीं हैं। इन कोणाकार दीवारों में बिठाना मुश्किल होगा। जहाँ बिठा सकते हूँ वहाँ अदल-बदल कर बिठा सकेंगे। कोने में बिठानेवाले द्विमुख शिल्प वैसे ही रहें ।"
" जैसी मर्जी । किस दिशा में कौन मूर्ति बिठाएँ, यह स्पष्ट हो जाए तो अच्छा। पट्टमहादेवीजी दिशादर्शन दें तो उसी तरह उन्हें बिठाने का यत्न करूँगा।"
"
'अपना रेखाचित्र मँगवाइए। नहीं, आपके कार्यागार में ही चलें चलिए । " "वहाँ काम करते-करते छेनी चलाते रहने के कारण, सब जगह धूल भरी हैं
328 : पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार
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