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इस षड्यन्त्र के कारण हैं, यह सब मायण ने नहीं बताया; क्योंकि यह बहुत ऊँचे स्तर से संचालित आन्तरिक मामले थे। इस बात को सबके सामने पेश करना उसने उचित नहीं समझा।
"ये तमाशबीन कौन हैं, उनके बारे में जानते हुए भी वहाँ क्यों नहीं बताया? तुमने कहा कि उनको तुम जानते हो?" नागिदेवण्णा ने पूछा।
"वहाँ जैसी हालत थी उसे समझकर मुझे लगा कि वह बात प्रकट न हो तो अन्धः । यहाँ के समक्ष वा प्राट हो तो उसे सन्देह बना हुआ है, उसके दे कारण नहीं, यह विदित हो जाएगा। वहीं यदि प्रकट हो जाता तो उस समय वहाँ जो वातावरण था उसमें यह बात आग में घी देने की-सी होती। इसीलिए मैंने ऐसा किया। अब तो सारी बातें खुलेंगी ही न?"
गंगराज ने पूछा, "अगस्त्येश्वर अग्रहार में जो घटना हुई उसके बारे में तुमने जब रानी से पहली बार भेंट की, तब उन्हें क्यों नहीं बताया?"
तिरुवरंगदास जहाँ बैठा था वहीं कुछ आगे की ओर झुका, मानो इस न्याय विचार में अब उसे दिलचस्पी होने लगी।
"वह व्यक्ति अगर मेरे हाथ लगा होता तो मैं सर्वप्रथम उसे रानी सन्निधान के समक्ष ले जाता। परन्तु वह खिसक गया था। यदि मैं रानी से यह बात कहता तो मेरे पास कोई प्रमाण न होता और मेरी बात बकवास बन जाती, इस भय के कारण नहीं बताया।"
मादिराज ने पूछा, "तुमने हुल्लमय्या से और रानीजी से जब परामर्श लिया तब यह बात जानने की कोशिश नहीं की कि उन्हें सन्देह किस पर है?"
मायण ने तुरन्त उत्तर नहीं दिया। उसकी दृष्टि पट्टमहादेवी को ओर थी।"कुछ बातें ऐसी होती हैं जिनके बारे में हमें बड़े लोगों से पूछना नहीं चाहिए। ये बातें मेरे स्तर की सीमा से बाहर की होती हैं। अब दोनों यहाँ विराजमान हैं। उन्हीं से पूछकर जान सकते हैं।" कहकर मायण ने उस प्रश्न को ही स्थानान्तरित कर दिया।
शान्तलदेवी ने कहा, "अब इस प्रसंग में वह आवश्यक प्रतीत नहीं होता । जब मुझे यह बात मालूम हुई कि मेरी भी हत्या का षड्यन्त्र चल रहा है, तब कई बातें मेरे भी दिमाग में आयीं। उसी तरह रानी लक्ष्मीदेवी के दिमाग में भी कई विचार आये होंगे। इस तरह से अनुमानित विषय या व्यक्ति के वास्तविकता से ज्यादातर दूर ही रहने की सम्भावना अधिक रहती है। इसलिए अभी इसे रहने दें। अभी तो इस न्याय-विचार के लिए जिन कैदियों को लाये हैं, उन्होंने क्या-क्या प्रचार किया है, उन बातों की सचाई तथा इस काम के लिए कौन प्रेरक हैं. आदि वातों को जानना प्रधान कार्य है। इसलिए इस ओर ध्यान देना न्याय-मण्डल के लिए ठीक होगा। मुझे बीच में बोलना नहीं चाहिए था। न्याय-मण्डल की मर्यादा का उल्लंघन मेरा उद्देश्य नहीं है। विषयान्तर न
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग सार :: 337