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शान्तलदेवी ने बता
" इन परिवर्तनों के साथ नया रेखाचित्र तैयार कर लाऊँगा। एक बार देखकर स्वीकृति दे दें तो ठीक होगा।"
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'एक काम करें। रेखाचित्र तैयार कर एक बार केतमल्लजी के माता-पिता को भी दिखा लें। उन्हें यह भी सूचित करें कि यह मेरी सलाह है। ये स्वीकार कर लें तो वैसा करें। वैसा ही हो यह कोई आग्रह नहीं। ये दीवारें बाहर से सज जाने पर ये शिल्पाकृतियाँ कहाँ सुन्दर लगेंगी, इस बात की कल्पना तब नहीं उठी जब पहले आपका बनाया हुआ रेखाचित्र देखा था। नहीं तो पहले ही सुझा सकती थी।"
"त्रिग्रहों के रखने का स्थान हो बदला है। इस परिवर्तन से वैविध्य रहेगा और सुन्दर भी लगेगा। जैसी आज्ञा हो, वैसा ही करूंगा।"
"मैंने कहा इसलिए आपको मान लेना चाहिए, ऐसी बात नहीं। इस समूचे शिल्प के स्रष्टा आप हैं। आपको विश्वास हो कि ये परिवर्तन आपकी कल्पना से मेल खाते हैं, तभी परिवर्तन करें। मैंने अपनी राय दो है। नया रेखाचित्र बनाते समय मेरी सलाह ठीक ऊँचे तो वैसा करें। अन्यथा जो आपको ठीक जँचे, वही करें। मेरे मन में दो मुख्य बातें हैं। सभी धर्म मानव के कल्याण के लिए हैं। शिव अलग, विष्णु अलग और जिनेन्द्र अलग, इस तरह अलग-अलग समझकर झगड़ना जनता के हित की दृष्टि से अच्छा नहीं। फिर भी परम्परा को छोड़कर क्रान्तिकारक परिवर्तन हो, मैं यह नहीं चाहती । परम्परा के द्वारा ही एकता की साधना हो, ऐसी मेरी इच्छा है। हरि हर को अगल-बगल में देखनेवाली जनता के हृदयान्तराल में दोनों की समानता की भावना उत्पन्न हो सकती है। फिर कथा-प्रसंगों को निरूपित करनेवाले शिल्पियों की भावनाओं में वैविध्य रह सकता है। उस भाव वैविध्य के अनुसार शिल्प की भंगिमाएँ रूपित होती हैं। एकरूपता - रहित दृश्यों को जोड़ने पर वह आकर्षक भी होता है। दीवार की निचली पंक्तियों में एकरूपता न रहने देने के लिए आपने हाथी, मगर और तोरण आदि बनाये हैं। वैसे ही इसमें भी वैविध्य रहे। ये दीवारें चतुरस्र और समतल न होकर उतारचढ़ाव से सजकर जैसे एकरूपता से रहित हैं, वैसे ही भित्ति-शिल्प में भी वैविध्य रहे ।"
" जैसी आपकी आज्ञा । "
यह कहकर शान्तलदेवी सावधानी से कदम बढ़ाती हुई बाहर आर्मी और हरीशजी से कहा, "मैं शायद चार-छह दिन इस तरफ न आ सकूँगी। आप रेखा-चित्र तैयार होते ही स्वयं ही एक बार राजमहल की ओर आ जाइएगा।"
" जो आज्ञा ।"
शान्तलदेवी अपनी पालकी में बैठ गर्यो और राजमहल पहुँचीं। विनयादित्य भोजन के लिए माँ की प्रतीक्षा में बैठा था। शान्तलदेवी को समय का ध्यान नहीं रहा था।
3.30 पट्टमहादेवी शान्तला भाग नार