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और कौटिल्य के अर्थशास्त्र की रीति-नीतियाँ आज के लिए लागू नहीं हो सकतीं। कुछ उत्तम विचार दोनों ग्रन्थों में हैं, सही है। पर कई ऐसी बातों में जैसा हम आज देखने हैं उसके अनुसार, परिवर्तन आवश्यक है। अप्पाजी, लालच दिखाने पर आदमी झुक जाता है। पर जो भी लालच के वशीभूत होता है वह बुरा होता है यह निर्णय नहीं कर सकते। हमें चाहिए कि मानव में पानवीय मूल्यों को पैदा कर सकें। उसे लालच से दूर रहने की प्रेरणा देने की हमारी रीति होनी चाहिए।"
"यह हवा में तलवार चलाकर हाथ दुखाने की-सी बात हुई। मेरे परदादा के समय से मेरे इस समय तक काफी परिवर्तन हुआ है। माँ, आपके विचारों से मेरे विचार मेल नहीं खाते । यह संघर्ष पीढ़ी-दर-पोढ़ी होनेवाले परिवर्तन के कारण होता आ रहा है। फिर आपका और मेरा, दोनों का लक्ष्य एक ही है, वह है सुखी राज्य ।"
"तुम्हारे हाथ में अधिकार-सत्र आने के बाद की बात है यह । हम अपने लक्ष्य की साधना के मार्ग को बदलने की स्थिति में नहीं हैं। इसलिए तुम लोगों को अपने कार्यक्रम के अनुसार काम करने के लिए समय की प्रतीक्षा करनी होगी। मुझे लगता है कि जो भाग तुम लोगों के हिस्से में पड़े, उसी को अहो भाग्य मानकर सन्तुष्ट रहने की प्रवृत्ति नहीं होगी, प्रत्युत समूचे को बनाने के लिए संघर्ष के लक्षण ज्यादा दिखाई
"हमें जो मिलना चाहिए उसे दूसरों को छीन लेने दें, यह कैसे हो सकता है, माँ ?"
"यही तो संघर्ष का मूल है।" "टक्कर हो तो क्रिया होगी। क्रिया हो न हो तो मनुष्य सूखा ,ठ-सा हो जाता
इतने में मन्त्रणा-प्रकोष्ठ का द्वार खुला। हरकारे ने आकर प्रणाम किया। "क्या बात है?" शान्तलदेवी ने पूछा।
"युद्ध-क्षेत्र से गुप्तचर आया है। उसे यहीं बुला लाऊँ या महाप्रधान के पास भेज दूं?"
"उसे यहीं भेज दो।" हरकारा प्रणाम कर चला गया।
"इस बार अपेक्षित समय से भी पहले खवर आयी है। कुछ खास बात होगी।" मादिराज बोले।
"हो सकता है।"
द्वार के खुलने की आवाज सुनाई पड़ी। गुप्तचर ने भीतर प्रवेश किया, झुककर प्रणाम किया और अपनी कमर की पट्टी में से एक पत्र निकाला। उसे विनीत भाव से मादिराज की ओर बढ़ाया। मादिराज ने अपने हाथ में लेकर उसे देखा। उस पर स्वयं
324 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग चार