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जान पड़ता था कि इर्द-गिर्द के गाँववाले भी जमा हो गये हैं। मायण चुपके से उन लोगों के बीच में जा बैठा।
नाटक इल्वल-वातापि की एक अदभुत कथा पर आधारित था। इल्वल के पास जो भी ब्राह्मण आता, इल्वल उससे वरदान माँगता कि उसे इन्द्र के समान पुत्र प्राप्त हो। ब्राह्मण जब पुत्र-प्राप्ति का यह वरदान देने में असमर्थता व्यक्त करता तो इल्थल अपने छोटे भाई वातापि को बकरा बनाकर उसे पकाता और ब्राह्मण को खिला देता। जब ब्राह्मण भोजन कर चुकता तो इल्वल अपने भाई का नाम लेकर उसे बुलाता। फलस्वरूप वातापि ब्राह्मण का पेट चीरकर बाहर निकल पड़ता, और ब्राह्मण तत्काल मर जाता। कुछ दिनों तक यही क्रम चलता रहा। एक दिन महर्षि अगस्त्य पर भी उसने यही प्रयोग किया । अगस्त्य द्वारा भोजन कर चुकने के बाद, जैसे ही इल्वन ने अपने भाई का नाम लेकर पुकार, अास्त्य में अपने पेट पर हाथ फेरा और कहा. ''वातापि जीर्णो भव ।" फिर क्या था, वातापि का नामोनिशान भी नहीं रहा। इसी कथा को मंचन किया जा रहा था। लोग एकाग्र होकर देख रहे थे। उस रात अगस्त्य के आने की बात सुनकर, उन पर विजय पाने की खुशी में बुरी नीयत से इल्वल नाम का पात्र मंच पर खूब नाचा।
दर्शकों में कुछ लोग कहने लगे, "बेचारे अगस्त्य की क्या हालत हुई होगी?"
मायण खब सोन्न-समझकर जहाँ बहुत से तिलकधारी बैठे थे, वहाँ उनके बीच में जा बैठा था। उसने बहुत आकर्षक ढंग से तिलक भी लगा रखा था। उसकी दृष्टि और कान बड़े सतर्क थे।
"क्यों रे, तुम्हें मालूम नहीं? महर्षि अगस्त्य तो उस वातापि को यों ही हजम कर जाएँगे। फिर क्यों मूखों की तरह बोल रहे हो?" एक ने कहा।
मायण को लगा कि यह आवाज पहचानो-सी है। उसका कुतुहल बढ़ चला। अब आग होने वाली बातचीत को वह एकाग्र भाव से सुनने लगा। उस आवाज से उसे व्यक्ति को पहचानना था; क्योंकि परिचित होने पर भी वह आवाज सहज नहीं लग रही थी, कुछ बनावटी मालूम हो रही थी। रात का वक्त, पेड़ की छाया में बैठे रहने से पेड़ के पत्तों की आड़ में से होकर चाँदनी कभी-कभी लोगों के चेहरों पर पड़ जाती। सो भी धुंधली-सी। और फिर वह व्यक्ति बहुत पास भी तो नहीं था। मायण ने अपनी दृष्टि दौड़ायो, सोचा कि उस आदमी के पास पहुँचने के लिए कहीं कोई रास्ता है ?
__ "यह पुराण की कथा का वह इल्वल नहीं, यह तो और तरह का इल्वल है। लगता है, मूल कथा कुछ और ही तरह की होगी।"
"तुम्हारे जैसा बेवकूफ और कौन होगा? अरे ! पुराण की प्रसिद्ध कथा को जो चाहे अपनी मर्जी के अनुसार बदल सकता है ? सो भी ऐसे नाटकों के प्रसंग में ?'' उसी बनावटो आवाजत्राले ने कहा।
298 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भा) चार