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पुनीसमय्या ने पूछा, "क्यों पण्डितजी, नाग-चौथ और नाग पंचमी नागदेवता का त्यौहार है। नागदेव तो जहर भरे होते हैं। उनकी पूजा के लिए निश्चित इन दिनों में पूजा छोड़कर हमला करें तो हम नागदेव के क्रोध का पात्र नहीं बनेंगे ?"
जगदल पण्डित ने कहा, "अगर साँप के डसने की नियति हो तो पूजा करने मात्र से हम उससे छूट नहीं सकेंगे। ये व्रत और नियम अपने क्रम से चलें, इसलिए ये दिन निश्चित किये गये हैं। पंचमी के दिन बहनें दूध से भाइयों की पीठ धोती हैं और भाई-बहन का रिश्ता मधुर बना रहे इसकी प्रार्थना करती हैं। जिसकी बहन न हो, वह उस दिन रोता बैठा रहे ? सन्निधान की बहन है, मगर वे अपनी बहन के पास जा नहीं सकेंगे। युद्धक्षेत्र को छोड़कर बहन के पास जाना तो अब सम्भव नहीं, यों चिन्ता करते बैठा जा सकता है? अपने घर जब रहें, तभी व्रत-त्यौहार आदि हो सकते हैं। यात्रा में, युद्धक्षेत्र में, इन सबको मनाने का मौका ही कहाँ ? यहाँ इन सब बातों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए।"
" तो आपने क्या देखकर दिन निश्चित किया ? रवाना होने का मुहूर्त भी आप ही ने निश्चय किया था न ? फिर यह हमला अब शीत युद्ध में क्यों परिणत हुआ ?" "हमारे सन्निधान (महाराज) को इस हमले में विजय मिले, इसलिए यह शीतयुद्ध होने लगा है। मुहूर्त निश्चित करते समय केवल यह देखा जाता है कि अमुक मुहूर्त में हमला करने पर विजय मिलेगी या नहीं। फल को जाने बिना मुहूर्त के अच्छे होने या न होने के बारे में सवाल करना अनुचित है। अब भी मुहूर्त इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर निकाला गया है।"
"हमारे शत्रु ने भी तो अपने ज्योतिषी से मुहूर्त निश्चित करवाया होगा न ? उन्होंने भी तो आपकी ही तरह ग्रहगति देखकर बताया होगा ?"
“हाँ।”
" परन्तु विजय एक ही को मिलेगो न ?"
"हाँ ।"
"तो जिसकी पराजय होगी, उसे जो मुहूर्त बताया गया, वह गलत होगा ?"
" हो सकता है। यह मुहूर्त ठहराने वाले के ज्योतिष ज्ञान पर निर्भर करता है। हमला करने वाले तो हम हैं न? वे तो चुप ही रहे। उन लोगों ने हमले के बारे में निर्णय भी नहीं किया था। मुहूर्त का निश्चय भी नहीं किया था। इसलिए आपका सवाल इस मौके पर लागू नहीं हो सकता।"
"मुझे जो लगा, मैंने कहा। सन्निधान की आज्ञा हो तो हम जीन कसे घोड़े की तरह आगे बढ़नेवाले हैं। इन बातों में आगा-पीछा नहीं करेंगे। अनुशासन का पालन हमारा लक्ष्य है। यही हमारा ध्येय हैं।"
" जहाँ अनुशासन हो, वहाँ जीत है। इस अनुशासन के लिए प्रधान ग्रह कुज हैं । 318 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार
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