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कुछ आतंकित होकर हुल्लमय्या बोला, "तो...?" "तो...तो क्या ?...वही। सब समझाकर कहना होगा?" "ऐसी बात सम्भव हो ही नहीं सकती।" हुल्लपय्या ने दुविधा में कहा।
"यह न हो सकने की बात नहीं। ऐसी स्थिति यदि उत्पन्न हो जाए तो मेरी और मेरे बेटे की रक्षा की व्यवस्था रहेगी न?' भयग्रस्त हो गिड़गिड़ाने जैसे स्वर में रानी ने कहा।
"मैंने वचन दिया है । रानीजी और राजकुमार का अमंगल हो सकने की स्थिति में, मैं किसी का भी सामना कर सकता है। अपनी जान तक देने को तैयार हूँ। मेरी इस निष्ठा पर शंका न करें।
'आपकी तरह अनेक की मदद की हमें जरूरत पड़ सकती है न? जिन-जिन को हम अपनी मदद के लिए अपना बनाकर रख सकते हैं, उनको अभी से तैयार कर लेना होगा।"
"यह जल्दबाजी में होने का काम नहीं। कई दृष्टियों से परीक्षा कर, हम व्यक्तियों को चुनना होगा। उस सम्बन्ध में देरी हो भी जाए तो भी इसके लिए व्यापक रूप से योजना बनानी होगी।"
"योजना बनाएँ । मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकूँगी, मुझे ऐसा अनुभव भी नहीं। खुशी की बात तो यह है कि जैन होते हुए भी आप हम सहयोग दे रहे हैं।''
"यहाँ हम पले-बढ़े उसी ढंग से। हमारे लिए कुछ बातों में धर्म गौण है। एक बार हम किसी को अपना मालिक मान लेते हैं तो वह आजीवन हमार लिए मालिक है। आपने सुना होगा कि पहले चलिकेनायक नामक एक व्यक्ति थे जो महासन्निधान के पिताजी के प्रिय तथा अत्यन्त विश्वासपात्र थे। उन्हें मैंने भी नहीं देखा था। उन्हें 'स्वामिद्रोहीहन्तक' विरुद भी दिया गया था। उनके पोते नोणवेनायक और पाचयनायक आज राजमहल की सेवा में तैनात हैं। वे शिवभक्त हैं। हमारे इस पोयसल राज्य में स्वामी और सेवक का सम्बन्ध आपसी विश्वास के आधार पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चालता आ रहा है।"
"हाँ, उन्हें मैंने भी देखा है जब मैं राजधानी में थी। पट्टमहादेवीजी उनकी बहुत प्रशंसा कर रही थी, यह भी सुना है। मैं पट्टमहादेवी की तरह बोलने में चतुर नहीं। आपको एक बात याद रखनी चाहिए। सारे अधिकार जव उनके हाथों में ही हैं, तब अपने बच्चों के हित की सुरक्षा के लिए पट्टमहादेवी ने कुछ लोगों को क्यों नियुक्त कर रखा है? हमेशा उनके पीछे ये रक्षक क्यों रहते हैं? छोटा कुमार तो राजमहल में ही है। लेकिन इस चोकिमय्या को और उन दोनों नायकों को, जिनके बारे में आपने अभी जिक्र किया, अपने बड़े बेटे के साथ क्यों रखा है ? सच है कि मैं केवल कट्टर वैदिक परिवारों में पली हूँ। ये राजनीतिक दाँवपेंच, पड्यन्त्र रचने को चाल्न आदि तो
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: ।।