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" हो सकता है। मेरा दिमाग इतना विचार नहीं कर सकता। यदि आपको ठोक जँचे तो उस पर गुप्तचरों को लगाकर पता लगाइए कि बात क्या है।"
"मैंने तभी आवश्यक आदेश दे दिये हैं।"
अच्छा किया। देखिए इस हत्या की खबर मिलने के बाद तो मेरे अंग-अंग ढीले पड़ गये हैं। कौन विश्वासपात्र है कौन नहीं, कुछ समझ में नहीं आती। उस मायण से जब बातचीत कर रही थी तब उसी पर मुझे शंका हो गयी। पट्टमहादेवी ने ही यह काम करने के लिए उसे भेजा हो शायद ऐसा ही मुझे लगा ।"
"न--न, पट्टमहादेवीजी इस तरह की बात कभी सोच भी नहीं सकेंगी ।" "वे धर्मान्ध होकर धर्म के नाम पर कुछ भी कर सकती हैं।"
"यह बहुत बड़ी बात हैं; इस पर मैं अपनी राय नहीं दे सकता।" 'डरते हो ?"
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'नहीं। अनुभव के आधार पर बनी गौरव की भावना है। सभी मनुष्य स्वार्थी हैं। परन्तु उस स्वार्थ को साधने के लिए सभी एक ही स्तर पर कार्य नहीं करते। अनेक होने वषय में मेरी भिन्न राय है। रानीजी, मुझे क्षमा
में आपसे
"करें।"
" जाने दीजिए। किसे कहीं चोट लगती है, उसी के अनुसार उसकी राय कायम होती हैं। आप रानी नहीं बने, आपके बच्चे उनकी आँखों की किरकिरी नहीं बने, इसलिए आप समझ नहीं सकते। यह सब मेरी आन्तरिक पीड़ा है। अन्य लोगों को यह कैसे दिखाई दे सकती हैं!"
" रानीजी का यदि यही अनुभव हो तो हम इसे नकार भी कैसे सकते हैं ?" "ठीक, अब तो सतर्क रहें। मेरे पिताजी के संरक्षण की भी समुचित व्यवस्था करें। उनके साथ अंगरक्षक हमेशा बने रहें । "
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'षड्यन्त्र की बात जब से सुनी, तब से सब तरह की रक्षा-व्यवस्था चुस्त बना दी गयी है। तलकाडु में आनेवाले बाहर के लोगों पर कड़ी नजर बनाये रखने का आदेश भी दे दिया गया है।"
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'अन्दर भी ऐसी ही व्यवस्था होनी चाहिए। अपने ही हाथ हमें चपत मार सकते
हैं । "
" चिन्ता की जरूरत नहीं । समुचित व्यवस्था है।"
रानी कुछ बोली नहीं। थोड़ी देर चुप रहने के बाद हुल्लमय्या ने पूछा, "और कुछ आदेश है ?"
"मेरी हत्या का यह षड्यन्त्र राजधानी के राजमहल की तरफ से ही चला हैं, यदि यह बात निश्चित हो गयी तो क्या हमें चुप बैठे रहना होगा ? या प्रतिकार की बात मोचना अच्छा है ?" धीरे से लक्ष्मीदेवी बोली।
310 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार