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"हुकम सिर आँखों पर।" 'पट्टमहादेवीजी से न कहेंगे तो आप लोगों के गले में पानी तक न उतरेगा।"
"सन्निधान की यदि यही राय हो, तो इसके लिए हमारे पास कोई जवाब नहीं। हम राजमहल के निष्ठावान नौकर हैं। सन्निधान भी राजमहल के ही कार्य के लिए आदेश देंगी, ऐसा मैं सोचता है।"
"ठीक, खबर मिली है कि राजकुमार की और मेरी हत्या का षड्यन्त्र हो रहा है। मुझे बताये बिना आपका आना, और आपकी पत्नी और चाविमय्या, इन दोनों को भिजवाना, यह सब देखने पर लगता है कि आपके आने का इस सबके साथ कुछ सम्बन्ध है। ऐसी शंका अगर हो तो क्या गलत है?'' इतना कहकर लक्ष्मीदेवी मायण की ओर देखने लगी कि उसको क्या प्रतिक्रिया होती है।
वह गूंगे की तरह खड़ा रहा, कुछ बोला नहीं। वह अपने मन की बात कहने की स्थिति में नहीं था। उसे लगा कि कह दें, 'ऐसी पवित्रात्मा पट्टमहादेवी के बारे में इस तरह की शंका करना कितनी नीचता है। आप पूर्वग्रह से पीड़ित हैं । ऐसी बातें मैं सुन नहीं सकता।' मगर कहा नहीं । सोचा कि पता नहीं सही न समझकर कुछ-काकुछ अर्थ निकालें, और जाने क्या समझ बैलें!
__कुछ देर चुप रहकर लक्ष्मीदेवी बोली, "चुप क्यों हो, कुछ कहते क्यों नहीं? मौन के क्या मायने हैं, जानते हो?"
"राजधानी में इस तरह की कोई खबर नहीं आयी, न मुझे कोई ऐसी खबर मिली। कल ही यहाँ के व्यवस्थापक अधिकारी ने मुझे यह सब सुनाया। उनकी बात सुनकर मैं दंग रह गया। तुरन्त मैंने उनसे जो निवेदन क्रिया सो आप उनसे ही पूछ लीजिएगा।" मायण बोला।
"उसका उन्होंने क्या जवाब दिया?"
"वे स्वयं यहाँ मौजूद हैं। यदि अब तक उन्होंने नहीं बताया हो तो बाद में बता ही देंगे।"
दो मिनट पौन रहकर रानी ने ही स्वयं कहा, "राजमहल के नौकरों पर जो अनुकम्पा है, वहीं राजमहलवालों पर भी हो तो बात दूसरी है। यदि आपने हमारे यहाँ के व्यवस्थापक को जो बताया है वही काम हो, तो वह कहाँ तक बना है?"
"काम करीब-करीब बन गया, कहा जा सकता है। मैं समझता हूँ कि जल्दी ही राजधानी लौटने के बारे में निर्णय लिया जा सकेगा।"
"तो अपने गुप्तचरों से मिल चुके ?" "हौं।' "कहाँ हैं वे? क्या उन्हें वैसे ही राजधानी की ओर दौड़ा दिया?"
"अगर उन्हें वैसे ही भेज देना होता तो मैं भी उनके साथ राजधानी चला गया होता।"
308 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार