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ही जाना पड़ेगा। इसके पहले यह भी जानना है कि वह परदापोश गाड़ी किसकी है। हो सके तो उस गाड़ी को उसके सभी यात्रियों के साथ तलकाडु ले जाने की कोशिश करनी है। इस गाड़ी के पीछे एक रहस्य है। बाकी बातें शहर में अपने मकाम पर मतगा। अभी तुम अपने रास्ते से जामीतुरन्त लावाड़ पहुंच रहा हूँ। तुम लोग युक्ति से उस गाड़ी को वहाँ हाँक लाओ।" इतना कहकर मायण ने यहाँ के व्यवस्थापक अधिकारी से हुई बातचीत का सारांश भी बता दिया, और चल पड़ा।
मायण नहाने के बहाने नदी पर गया। वहाँ अपने सहज प्रेस में आकर उसमें तलकाडु का रास्ता पकड़ा। जब वहां के व्यवस्थापक अधिकारी ने सुबह बुलावा भेजा तो मायण यहाँ नहीं था। जब वह मुकाम पर पहुंचा तो वहाँ, व्यवस्थापक की आज्ञा के अनुसार, रानीजी के दर्शन के लिए उसे ले जाने के लिए लोग प्रतीक्षा कर रहे थे। मायण के आते ही लोगों ने खबर दी। वह तुरन्त राजमहल की ओर चल पड़ा।
हुल्लमय्या को पहले खबर मिल गयी थी। राजमहल के अहाते में ही उसकी मायण से भेंट हो गयी। मायण को वह रातीजी के पास ले गया।
रानी को देखते ही मायण ने आदर के साथ झुककर प्रणाम किया, और विनीत भाव से पूछा, "क्या आज्ञा है?"
"हाँ, आप लोगों को स्वयं आकर मिलने की बात सूझती नहीं, हमें बुलवाना पड़ता है।"
"मैंने यहाँ के व्यवस्थापक अधिकारी को बताया था कि सन्निधान की सुविधा देखकर बताएँ।"
"हाँ, उनके खुद पूछने पर कहा न?"
"सच है, पहले उन्होंने यह सवाल तो किया। परन्तु, इसके यह मायने नहीं कि मैं दर्शनाकांक्षी नहीं था। मैं राजमहल की आज्ञा से इधर एक कार्य के निमित्त आया था। क्षमा करें, मेरा मन उस काम की ओर लगा रहा।"
"वह बात मुझे न बताने की आज्ञा है क्या?" "इस तरह की तो कोई आज्ञा नहीं।" "मतलब?" "न बताएँ, ऐसा कुछ नहीं। यह भी नहीं कहा कि बता देना।"
"फिर भी, जहाँ मैं हूँ, वहाँ आएँ और मुझे न बताएँ, क्या यह आपका अपना निर्णय है?"
"वास्तव में मेरा ध्यान अपने उस निर्दिष्ट कार्य पर लगा हुआ था। मैंने और कुछ सोचा ही नहीं।"
"यहाँ जो कुछ घटे, उसके बारे में हम किसी को न बताने की आज्ञा दें तो आप क्या करेंगे?"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 307