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हत्या के प्रयत्न की सूचना अवश्य मिली है। इस दिशा में हम बड़ी सतर्कता से काम ले रहे हैं। जब से उन्हें ग्रह पता चला तभी से वे भी बहुत परेशान हैं। धर्मदर्शी को कोस रही हैं। प्राणलेवा इस रानी की गद्दी पर बिठाकर हर क्षण प्राणभय से जीते रहने की स्थिति में मुझ जैसी अनजान को डाल दिया है। धर्मदर्शी ही इसके कारण हैं, यों खुल्लम-खुल्ला कह रही हैं। वे जब-तब डर से कांप उठती हैं तो देखकर मेरी अंतड़ियाँ बाहर निकल पड़ती हैं। उन्हें साहस देकर भीरज बँधाकर उनकी सुरक्षा का दायित्व मैंने अपने ऊपर लिया है, और यह वचन भी दिया है कि जब तक मैं जीवित है, रानीजी और राजकुमार का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।" हुल्लमय्या ने इस तरह अपनी सारी स्थिति मायण को स्पष्ट कर दी 1
मायण को इन सब बातों में कोई तालमेल नहीं लग रहा था । राजधानी में मिली खबर के अनुसार पट्टमहादेवीजी की हत्या का षड्यन्त्र चल रहा है, और यहाँ यह खबर है कि रानी और राजकुमार की हत्या का षड्यन्त्र है। इसका मतलब यह कि दोनों तरफ भय पैदा करके विद्वेष भाव बढ़ाने की साजिश हो रही है। उसने निर्णय किया कि इसकी तह में क्या है, इसका पूरा पता लगाना चाहिए। अपने मन की बात को व्यक्त किये बिना, उसने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, "ये लोग भी कितने बुरे हैं ! मुझे एक बात सूझ रही है। ऐसे प्रसंग में रानी और राजकुमार का राजधानी में रहना ही ठीक होगा।"
"मैंने पहले ही सलाह दी थी, पर महाराज के वापस आने तक वे राजधानी जाना ही नहीं चाहती । सन्निधान के बिना राजधानी उनके लिए काँटों की सेज हैं. यही कहती हैं।"
अब मायण के लिए कुछ कहने को क्या रहा! थोड़ी देर चुप बैठा रहा। सोचने लगा कि अगस्त्पेश्वर अग्रहार की घटना के बारे में हुल्लमय्या से कहें या नहीं। फिर निश्चय किया कि न हो कहें तो ठोक । उसे लगा, हुल्लमय्या के मन में लक्ष्मीदेवी के प्रति आत्मीयता का भाव है, इसलिए यही बेहतर है कि चाविमग्या और चट्टला की प्रतीक्षा की जाए और उन्हें साथ ले जाया जाए । यह निश्चय कर मायण हुल्लमय्या से विदा लेकर जाने को तैयार हुआ।
हुल्लमय्या ने पूछा, "रानीजी के दर्शन नहीं करेंगे?"
'जैसा आपने कहा कि अभी वे एक तरह से चिन्ताग्रस्त हैं। ऐसी हालत में उनसे मिलना उचित होगा? आप ही सोचें! फिर आप जो कहेंगे मैं वही करूँगा।।
"आप कब रवाना हो रहे हैं ?" "कैसे बताऊँ ? उन लोगों के मिलते ही उनको साथ लेकर चल दूँगा।"
"तो मतलब हुआ कि कुछ समय है। मैं परिस्थिति समझकर आपको सूचित करूँगा।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 305