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अगस्त्येश्वर मन्दिर की तरफ चल पड़ा। रात को वहीं ठहर गया। सवेरे वह अगस्त्य पात्रधारी को देख आया। उसे जोर की चोट लगी थी। जल्दी ही किसी ने हलदी लगाकर रक्त का बहाव रोक दिया था। इसलिए वह होश में आ गया था। मायण की उपसे कुछ खाप्त बातें मालूम नहीं हुई। इतना भर ज्ञात हुआ कि अगस्त्य का अभिनय न करने के लिए किसी श्रीवैष्णव ने नहीं कहा था। जहाँ तक अग्रहार को बात है, वहाँ इस तरह का धर्मद्वेष नहीं, इतना ज्ञात हो गया।
फिर उसने अग्रहार के और लोगों से भी पूछ-ताछ की। किसी नये व्यक्ति के वहाँ आने की कोई बात मालूम नहीं पड़ी। यदि कोई आया होता तो उन्हें मालूम हो जाता, यह अग्रहारवालों का कहना था।
अब इसका यही मतलब हुआ कि यहाँ चोलों का बहुत हस्तक्षेप है। फिर मायण अग्रहार के पटवारी और एक छोटे करणिक से मिला। उन्हें अपना परिचय दिया। उनको यह भी बताया कि अग्रहार के चारों ओर विशेष ध्यान रखकर, निगरानी करते रहें। फिर दोपहर का भोजन समाप्त करके मायण वहाँ से तलकाडु के लिए रवाना हुआ। पटवारी ने सूचित किया कि साथ में किसी को लेते जाएँ। परन्तु मायण ने कहा कि कोई आवश्यकता नहीं, अँधेरे से पहले ही वह पहुँच जाएगा। इस तरह यह अकेला ही चल पड़ा। मायण ने इसलिए ऐसा कहा था कि किसी को साथ ले जाने पर उसके भावी कार्यक्रम में बाधा आ सकती हैं।
पहले मायण वहाँ रानी के लिए बने उस निवास पर नहाँ गया। उसने अपने घोड़े को वहाँ के अस्तबल में रखा और सीधा तलकाडु के राजकीय अधिकारी हुल्लमय्या से मिला।
हुल्लमय्या ने मायण से पूछा, "इस तरह पूर्वसूचना के बिना आपके आने से लगता है कि कोई महत्त्वपूर्ण कार्य रहा होगा?"
"आपको मालूम ही है कि जयकेशो पर सेना समेत हमला करने के लिए सन्निधान आगे बढ़ गये हैं। इसके लिए हम अपनी सारी शक्ति और धन इस्तेमाल कर रहे हैं। इस वक्त दक्षिण के अन्तिम छोर पर फिर से चोलों द्वारा अडचन पैदा की जा सकती है, यही सोचकर चाविमय्या और चट्टलदेवी इस तरफ आये हैं। पट्टमहादेवीजी की आज्ञा है कि उन्हें तुरन्त वापस बुला लाएँ। उन्हें ले जाने के लिए ही में आया हूँ। मुझे आना पड़ा क्योंकि वे भेस बदलकर आये हैं, और दूसरे उन्हें पहचान नहीं सकते। यह खबर किसी को नहीं दी है।''
"मैं यहाँ का राजकार्य देख रहा हूँ। कम-से-कम मुझे बता देत तो अच्छा होता न?
"किसे घताना और किसे नहीं बताना, यह राजमहल का मामला है। यदि आप तक पहुँचाने की बात होती तो अवश्य ही आपको बतायी जाती।''
पट्टमहादेवी शान्नला : भाग चार :: 303