________________
11
'तो मतलब यह हुआ कि हम राजपरिवार के पूर्ण विश्वास के पात्र नहीं बन
सके हैं।"
"
'ऐसा सोचना जल्दबाजी का कार्य होगा। आपको ऐसी जल्दबाजी नहीं करनी
चाहिए।"
"मुझे ऐसा लगता है कि मेरे इस क्षेत्र में मेरी जानकारी के बिना गुप्तचर आये हैं तो उसके यही मायने हुआ ?"
"वह बात स्वयं छोटी रानीजी को भी मालूम नहीं। उन्हें भी नहीं बताया गया है कि वे कहाँ कहाँ किससे मिलेंगे।"
"मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि उन्हें भी इस बात को लेकर दुख होगा। कभीकभी वह ऐसे दुख को बहुत महसूस करती हैं, और हमें कुछ नहीं मालूम होता। 'मैं छोटी रानी और तिस पर श्रीवैष्णव पन्थी हूँ। इस वजह से इस राजमहल में मुझे मान्यता नहीं, लगता है, ऐसी धारणा उनकी बन गयी है। उनकी यह भी धारणा हैं कि उन पर कोई विश्वास नहीं रखता।"
LL
'आप सभी कुछ जानते हैं। हमारे राजमहल की सारी रीति-नीतियों से परिचित भी हैं। राजमहल जिस नीति का अनुसरण कर रहा है, वह सबके लिए हितकारी है। वास्तव में वह किसी पर अविश्वास नहीं करता, न ही शंकापूर्ण दृष्टि से किसी को देखता है । अत्यन्त निकट रहनेवाले हमें भी सभी बातें मालूम नहीं रहतीं। ऐसा समझकर मन में यह सोच लें कि हम पर विश्वास नहीं किया जाता, गलत होगा।"
14
* आपको भी मेरी तरह एक क्षेत्र का निरीक्षक बनाते और जिम्मेदारी सौंप कर कुछ बातें नहीं बताते तो आप समझते । जाने दीजिए। हम आपस में इस विषय में बहस क्यों करें!"
"सो तो ठीक है। आखिर हम सेवक ही हैं। जो काम बताया जाता है उसे तत्परता से पूरा कर देना हमारा काम है। शायद इसमें हमारा भी कुछ अविवेक हो । चाविमय्या के इधर आने की बात भी पट्टमहादेवीजी को बाद में मालूम हुई। जब हमारी रानीजी ही यहाँ हैं तब उन्हें बताये बिना इस तरफ गुप्तचरों को आना नहीं चाहिए था । यह सब कुछ जल्दबाजी में ही हुआ है। उनके तलकाडु पहुँचने से पहले उन्हें लौटा लाने का आदेश पट्टमहादेवीजी ने दिया है। इसलिए मैं आया हूँ । यदि वे मुझे रास्ते में मिल जाते तो मैं यहाँ तक आता ही नहीं ।"
"आपकी बात सुनने के बाद मुझे अपना विचार बदलना होगा। अच्छा इस बात को रहने दो। चोलों की हरकतों के बारे में क्या समाचार मिला है, हम जान सकते हैं ?" "मुझे इसका कोई ब्यौरा मालूम नहीं। महाप्रधान की आज्ञा के अनुसार हम काम करनेवाले हैं न? इसे रहने दें। यहाँ इस सम्बन्ध में कुछ खबर मिली है क्या ?" 'उनके बारे में तो कोई खबर नहीं। हाँ, यहाँ रानीजी और उनके बेटे की गुप्त
"
304 पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार