________________
पहुंचा दी जाएगी। गाँव-गाँव समाचार भेजकर राजदाय से प्राप्त धान्य संग्रह से आधा अमुक-अमुक व्यक्तियों द्वारा अमुक-अमुक स्थान पर सुरक्षित रूप से भेजने की व्यवस्था पक्की की गये। इतनी रसद करीब छह महीनों के लिए पर्याप्त होनी चाहिए। इतने में फिर फसल कटाई का समय आ जाएगा। पीछे तकलीफ न उठानी पड़े, यह सब सोच-विचार कर कार्य को आयोजित करने का आदेश शान्तलदेवी ने मादिराज को दिया। यहीं आपस में ही निश्चित हो जाने के कारण बात गंगराज तक नहीं गयी।
मायण से जो समाचार मिला था, और उसे जो आदेश दिया गया, उस सम्बन्ध में मादिराज से शान्तलदेवी ने कुछ नहीं कहा।
पट्टमहादेवी के आदेश के अनुसार मायण भेस बदलकर चट्टलदेवी और चाविमय्या की खोज में राजधानी से रवाना हो चुका था। चट्टल और चाविमय्या दोनों-के-दोनों योद्धाओं के जैसे वस्त्र धारण कर, अच्छी नस्ल के घोड़ों पर तो गये थे, मगर घोड़ों को तलकाडु ले जाने का उनका इरादा नहीं था । वैसे उन्हें जल्दी ही तलकार्ड पहुंचना था, इसीलिए दो दिन के भीतर यादवपुरी पहुँचकर दण्डनायक जी के घर गये, और यहाँ की अश्वशाला में घोड़ों को बाँधकर फिर भेस बदलकर पैदल ही आगे बढ़ गये थे। चट्टलदेवी तो अब पुरुषों के लिबास में पुरुष ही लगती थी। खेल-तमाशा दिखानेवालों के भेस में करामाती खेल दिखाते हुए, गाना गाते हुए, दोनों चले जा रहे थे। यादवपुरी में डाकरस दण्डनायकजी नहीं थे। हाँ, दण्डनायिकाजी, हरियलदेवी, कुमारी शान्तला और चंगला, ये सब थे। जिस हेतु आये थे सो उन्हें न बताकर, केवल इतनी भर सूचना कि गुप्तचरी से सम्बन्धित राजकीय कार्य पर तलकाडु की तरफ जा रहे हैं, देकर वे वहाँ से रवाना हो गये थे।
__मायण ने यह नहीं सोचा था कि दोनों यादवपुरी गये होंगे, वह सीधा तलकाडु की ओर चल पड़ा। वह भेर्य, तिप्पूर से होकर उदयादित्य द्वारा स्थापित श्रीरंगनाथ अग्रहार पहुँचकर, वहाँ से होते हुए कपिला-कावेरी के संगम-पर पहुँचकर, वहाँ के अगस्त्येश्वर मन्दिर के अग्रहार में रात बिताने के उद्देश्य से ठहर गया। वहाँ उस रात एक वीथि-नाटक का आयोजन था। पहर भर ही बीता था कि रात की उस स्तब्धता में ताल-मृदंग आदि को तुमुल ध्वनि शुरू हो गयी। अग्रहार की धर्मशाला के अहाते में मायण सोया हुआ था। आवाज सुनकर जाग पड़ा। इस शोर-गुल में नींद लगने का कोई सवाल ही नहीं था। इसलिए जिधर से आवाज आ रही थी वह उठकर उस ओर चल दिया। अग्रहार की सार्वजनिक बैठक के सामने रंगस्थल बनाया गया था, वहीं यह खेल चल रहा था। अगस्त्येश्वर-अग्रहार छोटा था, परन्तु वहाँ इकट्ठे लोगों को देखकर
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 297