________________
"क्योंजी, तुम इस वीथिनाटक को आज ही देख रहे हो? मैंने कितनी बार देखा है। लेकिन कभी भी इल्वल इस तरह नाचता-कूदता नहीं था। इसका नाचना ही कुछ और तरह का लगता है। इसलिए मुझे कुछ शंका हो रही है।"
"नाचने का ढंग बदल जाए तो कथा थोड़े ही बदल जाएगो? वातापि को मरना चाहिए, तब इन्वल को होश आना चाहिए। वातापि को हजम करनेवाले अगस्त्य को डकार लेना चाहिए । बार-बार देखने वाले ऊब जाएँगे, इसलिए उसमें कुछ नया जोड़कर नाटक खेला जा रहा है, मुझे न सा ही लगता है।'
"ठीक । बकवास बन्द करो, चुपचाप देखो। आगे मालूम पड़ेगा। देखो कि आगे और क्या होता है।"
बात वहीं रुक गयी। इतने में अगस्त्य पात्रधारी रंगमंच पर आया। उसने अपने दण्डकमण्डलु के साथ बहुत गम्भीर मुद्रा में नाचना शुरू किया। इल्वल और अगस्त्य के परस्पर मिलन का वर्णन करने वाला एक पद नाटकाचार्य, जिसे भागवत कहते हैं, ने तार-स्थायी में गाया। ठीक इसी वक्त रंगमंच पर कोई हाय-हाय चिल्लाया। लोगों ने हैरानी से देखा कि अगस्त्य वेशधारी पात्र रंगमंच पर पड़ा लोट रहा है और कराह रहा है। खेल बन्द हो गया।
लोग उठे और पंच की ओर जमा होने लगे। मगर मायण की दृष्टि उस बनावटी आवाज वाले व्यक्ति की ओर ही लगी थी। जैसे ही वह व्यक्ति इधर-उधर नजर दौड़ाकर धीरे से भीड़ से दूर खिसकने लगा, मायण ने उसका अनुसरण किया। यह मालूम पड़ते ही कि कोई उसका पीछा कर रहा है, उस व्यक्ति ने तेजी से कदम बढ़ाना शुरू किया। मायण ने भी गति तेज कर दी। चलते-चलते उसने कमर में टटोलकर देख लिया कि अपना अंकुश सुरक्षित है या नहीं। दोनों करीब-करीब एक निर्जन स्थान में जा पहुंचे। वहाँ से रंगमंत्र की आवाज धीमी सुनाई पड़ रही थी। मायण ने कुछ जोर से पुकारा, "ऐ! कौन हो, वहीं रुक जाओ!" आवाज सुनते ही वह व्यक्ति दौड़ पड़ा।
___मायण ने उसका पीछा कर उसे पकड़ लिया और अपना तेज अंकुश दिखाकर कहा, "अगर अपने प्राण चाहते हो तो मेरे सवालों का जवाब दो।"
घह निहत्था था, कुछ घबरा गया। उस रात कड़ाके की ठण्ड थी, फिर भी वह पसीना-पसीना हो गया।
"हाँ, तैयार हो जाओ, सवाल का जवान दो!" "आप कौन हैं?'' आवाज का बनावटीपन गायब हो गया था।
"मैं कोई भी हो सकता है। इससे तुम्हें क्या? अभी मैं जो कहूँ, वह करी-तुम एक जमाने में तलकाडु के राजगृह की धर्मशाला के कर्मचारी थे न?'।
चकित हो मुंह बाग्मे यह देखने लगा। "इस तरह देखने से काम नहीं चलेगा, बताओ। धर्मशाला के कर्मचारी थे न्या
पट्टमहादेव शान्तला : भाग चार :: 2929