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मानव की नीचता का उन्हें भी अनुभव हुआ। फलत: शिवभूति की कथा से वे आकर्षित
"यह मालूम होने पर भी कि यह कहानी अनुभव-जन्य है, आप ने उस धर्मदर्शी और उनके अनुयायियों को ऐसे ही क्यों छोड़ रखा है, माँ? यह कहाँ का न्याय है? वह गुट बनाकर भेद-नीति से हमारे प्राप्य सिंहासन को हथियाना चाहें, यह ठीक है माँ?"
"अप्पाजी, यह दुरालोचना है, दूरालोचना नहीं।' "भुगतने वाले तो हम हैं न?''
"हम के माने? तुम लोगों के साथ कुमार नरसिंह भी शामिल है न । वह अभी बालक हैं । तुम लोगों को उसके बारे में बुरी भावना रखना ठीक है? तुम सभी के जन्मदाता पिता एक ही हैं न?"
"परन्तु वह माँ पर पड़ा है। राजमहल के वातावरण में पले न होने से उसका ढंग ही अलग हो।'
"भविष्य बताने वाले श्रीधराचार्य की तरह बातचीत मत करो, अप्पाजी ! भावनाएँ चाहे जो भी हों, सब भगवान् की इच्छा के अनुसार होगा न?"
"हो सकता है। ऐसा समझकर हम निष्क्रिय ही हाथ समेटें बैठे रहें, यह ठीक होगा? पंचतन्त्र में कहा है कि मनुष्य को भगवान पर ही छोड़कर बैठे नहीं रहना चाहिए। भगवान् स्वर्य कुछ नहीं करेंगे। मनुष्य में अपना पुरुषार्थ होगा तो भगवान् भी सहायक होंगे । मानवीयता का महत्त्व परखने वाले हमारे घराने को चाहिए कि मानवीयता के इस मूल्य को बनाये रखने का अभ्यास करें। यों हाथ बाँधे बैठे रहकर फसल की प्रतीक्षा करने से नहीं चलेगा।
"मैंने पहले कह दिया है ना अप्पाजी, कि तुम अभी नासमझ हो । इन बातों में मत पड़ो। मैंने सोचा था कि तुम समझ गये होंगे लेकिन तुम्हारे दिमाग में अभी भी वही धुन सवार है ! इसे तुम बनाये रखोगे तो तुम्हारे मन में वह शैतान बनकर बैठ जाएगी और तुम अपनी क्रिया-शक्ति खो बैठोगे। इसलिए ये सब बातें छोड़ो और भोजन समाप्त करो।" कहकर शान्तलदेवी ने इस चर्चा को बन्द कर दिया।
दोनों मौन हो भोजन करते रहे। शान्तलदेवी को लग रहा था कि स्वयं संयमी होने पर भी उसके मन में आतंक समा गया है।
फिर एकदम विनयादित्य पूछ बैठा, "माँ, मायण से बातचीत करने के बाद फिर उस गुप्तचर को बुलाकर बातचीत की न, उसका कोई खास कारण था?"
हाथ का कौर मुँह तक जाकर वहीं रुक गया। शान्तलदेवी ने बेटे की ओर एक तीव्र दृष्टि डाली, पर केवल क्षण भर के लिए ही। अपनी भावनाओं को मन ही में दबाकर कहा, "जानी हुई बात को बार-बार नहीं पूछना चाहिए, अप्पाजी। खास
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 293