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"उसके बारे में आपको ही सोचना है तो फिर मादिराज को क्यों कहला भेजा ?" " धन जुटानेवाले तो बही हैं न?"
" अपने घर से तो नहीं लाते हैं ? हमारे खजाने का ही तो है ?"
" खजाने में धन होना चाहिए न, अप्पाजी ?"
"न होगा तो क्या छूमन्तर कर मँगवा देंगे ?"
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'क्या आज इस छूमन्तर की कहानी तुम्हारे गुरुजी ने बतायी थी ?" "हाँ, बहुत मजेदार थी । तुम्हें बताने आया था, पर...
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"ओफ, अब अय्याजी के मौन का रहस्य मालूम हुआ। अच्छा, बताओ क्या
है ?"
"मनुष्य से अधिक विश्वासघाती प्राणी कोई होता है ?"
"पंचतन्त्र पढ़ा रहे हैं ?"
" हों। उसमें आज उन्होंने शिवभूति की कथा सुनायी। बाघ, बन्दर और साँप ये तीनों शिवभूति से उपकृत हुए। इस उपकार के बदले में तीनों प्राणियों ने अपनी कहनत दिखायी और शिवधुति की सहायता की। परन्तु उस उपकृत मनुष्य ने उन्हें धोखा दिया।"
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"ऐसों को ही 'मानव-पशु' कहा जाता है । सन्धिविग्रही दुर्गसिंह ने क्यों इस काव्य की रचना की, समझते हो ?"
"
'अपनी काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन करने के लिए। "
"
'अपने पराक्रम का प्रदर्शन करने के लिए कोई युद्ध में जाता है ?"
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'जा सकता है। चालुक्यों ने हम पर हमला नहीं किया ?"
" उस हमले की बात बहुत गहरी है। बाहर से देखने पर वह समझ में नहीं आएगी। अच्छा, छोड़ी इन बातों को। तुम्हें आगे चलकर मालूम होगा कि उसके पोछे क्या राज था। युद्ध स्वराष्ट्र एवं जनता की रक्षा के लिए करना होता है। वहाँ योद्धा अपनी शक्ति दिखाते हैं। परन्तु वैयक्तिक शक्ति प्रदर्शन उनका उद्देश्य नहीं। फिर भी लोग उनकी व्यक्तिगत शक्ति का मूल्य आँकते हैं। हमारे राज्य में जहाँ-तहाँ वीरतास्मारक पत्थर गाड़े गये हैं, वे इसी के प्रतीक हैं। ऐसे ही कवि केवल प्रतिभा प्रदर्शन के लिए काव्य-रचना नहीं करते। न ही मात्र इतने उद्देश्य से रचना की जानी चाहिए। उनकी रचना में मानवीय मूल्यों का समावेश होना आवश्यक हैं। उसके अध्ययन से पाठक की मनोभूमि विकसित हो और मनुष्य वास्तविक 'मनुष्य' बन सके, शिवभूति की कथा में दुर्गसिंह ने इसी नीति को रूपित किया है। साँप को दूध पिलाने से क्या लाभ, वह जहरीला जीव है, बुरा ही करेगा - यही हम मनुष्य कहते हैं। परन्तु यहाँ वही सर्प कृतज्ञता की मूर्ति बनकर आता है। उधर मनुष्य कृतघ्न बनकर नीचता का प्रतीक बन्दता है। दुर्गसिंह राजनीतिक क्षेत्र में रहे। वे सन्धि विग्रही बनकर कार्य करते थे ।
292 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार