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लगे तो उसे क्या कहा जाए? चट्टला और चाविमय्या तलकाडु की तरफ गये हैं। यहाँ तो रानी लक्ष्मीदेवी और उसके पिता हैं। तो क्या इस षड्यन्त्र के पीछे उनका हाथ है? मायण को बात से तो यही ध्वनि निकलती थी। मैं जिस आदर्श पर चल रही हूँ वह बाहुबली स्वामी के त्याग का आदर्श है। मेरे बच्चों का इस सिंहासन पर जो अधिकार है उसे उसके बेटे के लिए त्याग , तो यह क्या गलत होगा? बाहुबली के त्याग से सम्पूर्ण जगत् को प्रकाश मिला। मेरे त्याग से अधिकार की लालसा रखने वाली के स्वार्थ का नग्न-ताण्डव हो तो प्रजा सुखी कैसे रह सकेगी? अनेक लोगों के राष्ट्र प्रेम से निर्मित यह राज्य पलक मारते छिन्न-भिन्न हो जाएगा। प्रभु और महामातृश्री जो अब इन्द्रलोक में हैं, वे क्यों मौन हैं?' यों वह तरह-तरह के विचारों में निमग्न हुई लेटी रहीं। पढ़ाई-लिखाई समाप्त कर तभी विनयादित्य माँ को भोजन के लिए बुलाने आया।
“ओफ! इतना समय बीत गया, अप्पाजी?" कहती हुई वह उठी और बोली, "तुम चलो अप्पाजी, मैं हाथ-मुँह धोकर, थोड़ा पूजा-पाठ कर आती हूँ।'' वह स्नानागार में गयीं। विनयादित्य उसी ओर एक तरह से देखता रहा, फिर भोजन के लिए चला गया। उसके जाने के थोड़ी देर बाद शान्तलदेवी भी वहाँ पहुँच गयीं।
भोजन तैयार था। शान्तलदेवी मौन ही भोजन करने लगी। विनयादित्य ने सोचा कि आज माँ क्यों इस तरह गुम-सुम हैं । वह भी चुपचाप भोजन कर रहा था। यों इस तरह पौन माँ-बेटे दोनों के लिए अस्वाभाविक था। क्योंकि महासन्निधान के युद्ध पर चले जाने से, राजपहल में माँ-बेटा दो ही जन तो रह गये थे। भोजन के वक्त विनयादित्य अधिक देर तक ऐसे चुप कैसे रह सकता था? उसने सोचा, माँ से कुछ पूछना चाहिए। पढ़ाई में गुरुजी के समझाने पर भी यदि कोई बात ठीक समझ में नहीं आयी हो तो उसे पूछा जा सकता है। या फिर जो पाठ्य विषय बहुत अच्छा लगा ही, उसे बतलाना उचित होगा। बेटे के अध्ययन में रुचि और उसकी विवेचना शक्ति बढ़ाने के लिए बहुत-सी बातों को विस्तार के साथ शान्तलदेवी समझाया भी करती थीं। इस कारण आमतौर पर उनका भोजन जल्दी समाप्त नहीं होता था। परन्तु आज के मौन ने दोनों को एक विचित्र स्थिति में डाल रखा था। बेटा मां के मान के कारण मौन, और माँ बेटे के चुपचाप बैठे रहने के कारण मौन । दोनों कुछ क्षण प्रश्नसूचक दृष्टि एक-दृसरे पर डालते रहे। अन्त में शान्तलदेवी ने पौन तोड़ा और पूछा, "आज गुरुजी तुम पर गुस्सा हुए हैं क्या, अप्पाजी ?"
"वे क्यों गुस्सा होंगे?" "फिर आज तुम ऐसे गुमसुम क्यों हो?" "माँ गुमसुम बैठी रहें तो मैं क्या बोलूं?" "गुमसुम नहीं। युद्धक्षेत्र में भेजने के लिए सामग्री जुटाने के बारे में सोच रही
थी।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 291