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जानने-समझने के लिए तलकाडु की तरफ गये हैं।"
"यहाँ हमारे रहने की बात तुमको याद नहीं थी, मायण?" शान्तलदेवी के स्वर में कुछ असन्तोष था।
"तो हमने जो कदम उठाया सो गलत है ? महासन्निधान का आदेश रहा है कि धर्म की आड़ में लोगों की एकता भंग करने वालों के षड्यन्त्र को और शत्रुओं के पड्यन्त्र-माल को तोड़ने के लिए, हमें असा उचिा लगे वैसा करने की स्वतन्त्रता है। यही मानकर हम इस निर्णय पर पहुँचे और आगे कदम बढ़ाया। हमारी पट्टमहादेवी की हत्या का षड्यन्त्र कोई साधारण खबर नहीं। इस काम में समय व्यर्थ नहीं गंवाया जा सकता था। इसलिए जो हमने ठीक समझा, वह किया है। इसे सन्निधान से निवेदन करने के लिए ही आया था। सन्निधान के पीठ पीछे कुछ करने की हमारी इच्छा नहीं थी। फिर इससे सन्निधान को असन्तोष हुआ हो तो जो चाहे दण्ड दें, भुगतने के लिए हम तैयार हैं। राजपरिवार की भलाई के लिए ही हमारा जीवन समर्पित है। हम ऐसा कोई काम कभी नहीं करेंगे जिससे राजपरिवार का अहित हो।" यों एकदम कह बैठा मायण । उसके अन्तर में गहरी वेदना थी। वह वेदना उसके स्वर में झलक रही थी।
"मायण, तुमने कहा कि वे तलकाडु की ओर गये हैं। यह बात मुझे पहले मालूम हुई होती तो अच्छा होता, यही सोचकर मैंने पूछा। वहीं छोटी रानी, राजकुमार नरसिंह और धर्मदर्शी हैं, यह तो तुम जानते हो न? उन लोगों पर कोई आपदा आ जाए तो हमें उनको तुरन्त राजधानी में बुलवा लाना होगा। सन्निधान की अनुपस्थिति में उनकी रक्षा का दायित्व मुझ पर ही है, यह तो तुम जानते ही हो। इसलिए तुमने जो जल्दबाजी की, वह ठीक नहीं।" शान्तलदेवी बोलीं।
"षड्यन्त्रकारी अपनी सुरक्षा की व्यवस्था आप ही कर लिया करते हैं।" "मायण! तुम नहीं जानते कि तुम क्या बोल रहे हो।"
"एक समय था जब मैं ऐसा सोचा करता था। परन्तु अब सन्निधान के शिक्षण देने से मैं बदल गया हूँ। उन दोनों के लौटने तक का कृपया मुझे समय दें। फिर मेरी बात गलत हुई तो मैं सेवा-निवृत्त हो जाऊँगा।"
"असम्बद्ध बातें मत करो, मायण । तुम्हारी निष्ठा के विषय में कुछ नहीं कहा। लाचार होकर कहना पड़ता है कि तुमको कुछ व्यवहार की बातें मालूम नहीं। एक बात बता दूं। मान लो, जैसा तुम सोचते हो कि ये षड्यन्त्रकारी ऊँचे पद पर रहनेवाले ही हैं। यदि यह खबर अब लोगों में फैलेगी तो क्या समझेंगे? वे समझेंगे कि सजमहल में ही कुछ मनमुटाव है, समरसता का अभाव है। इस आधार पर राजमहल के लोगों की ताकत और कमजोरी समझने की ये कोशिश करेंगे। और सुनो, मरने से मैं नहीं डरती। अब मुझे किसी बात की लालसा नहीं है। अब तक मैंने महामातृ श्री को जो वचन दिया था उसका पालन किया है। तुम भी तब से सभी बातें जानते आ रहे हो। मुझे
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 287