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मिलते-जुलते हो। परन्तु आज तुम्हारी बातें..." कहती हुई रुक गर्यो।
विजयादित्य को लगा, जैसे वह भीतर-ही-भीतर घुट रहा हो। बोला, "माँ, आपको दुखी करना मेरा उद्देश्य नहीं था। आप और हम पर बिना कारण द्वेष करनेवाले लोगों को वही स्थान देना चाहिए, जिसके वे योग्य हो । इतना ही मेरा कहना है । विवेकी
और बुद्धिमान बनाने के लिए हमें आपने शिक्षण दिलवाया है। राजनीति में आप जिन मानवीय मूल्यों को देखना चाहती हैं, उसके लिए वहाँ स्थान नहीं हैं।"
"अप्पाजी, मैं राजनीतिज्ञ नहीं हूँ। जिस वातावरण में जन्मी, पाली पोसी गयी, वहाँ मुझे अब तक प्रेम और आदर हो मिलता रहा है। मेरे माँ-बाप, पतिदेव और मेरी माता-समान सास सबने प्रेम से ही मेरे व्यक्तित्व को गहा। मेरे गुरुवर्य ने विश्वप्रेम का आदर्श ही मेरे दिमाग में भरा है। किसी तरह का सम्बन्ध न होने पर भी, हमारे रेविमय्या ने मुझको अपार प्रेम-स्नेह दिया है। न वह कोई सगा है, न कोई रिश्ते-नाते का है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में घटी घटनाओं के आधार पर मानवीय मूल्यों को समझने, परखने लगता है। अभी तुम्हारी उम्र छोटी हैं । जीवन का अभी उतना अनुभव कहाँ! अभी तुम्हारे विचार पुस्तकों में जो पढ़ा है उससे प्रभावित हैं। इसलिए इन बातों में दखल देने जैसे प्रबुद्ध नहीं हो। खुली आँखों से देखो-समझो और अपने अनुभव को बढ़ाते जाओ। तुम्हें तुम्हारे अपने परदादा का ही नाम दिया गया है। वे कितने संयमी थे! अपने अपार अनुभव के फलस्वरूप कितने सूक्ष्मग्राही थे वे! यह बात मुझे उस समय समझ में आ गयी थी जब मैं तुमसे भी लोटरी राम की शी। तुम्हारे दादा उनके एकमात्र पुत्र थे। उन्हें सिंहासन पर बिठाने के लिए उन्होंने बहुत प्रयत्न किये, मगर सफल न हो सके। अगर वह क्रोधित होकर उनसे द्वेष कर बैठते तो हमारा यह राज्य आज इतना विशाल नहीं होता। इसलिए अब उन्हीं की तरह तुम्हें भी संयमी होना चाहिए, सूक्ष्मग्राही बनना चाहिए।"
तभी नौकरानी ने द्वार सरकाया। दोनों ने उस ओर देखा । एक क्षण बाट शान्तलदेवी ने कहा." अन्दर आओ।" नौकरानी अन्दर आयी और बोली, "गुप्तचर आकर हेग्गड़े मायणजी को कुछ समाचार दे गये हैं। वे आपसे मिलना चाहते हैं।"
"कहाँ हैं मायण?" "बाहर के बरामदे में।" "और चट्टला कहाँ है?" "आज वह राजमहल में नहीं आयीं शायद।" "ऐसा?" शान्तलदेवी उठकर चल दी।
विनयादित्य को कुछ सूझा नहीं कि क्या करना चाहिए। क्षण-भर सोचकर उसने धीरे से माँ का अनुसरण किया। शान्तलदेवी सीधी मायण के पास गयीं । मायण ने झुककर प्रणाम किया। शान्तलदेवी ने पूछा, "कोई जरूरी बात है?"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 285