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जब यह प्रतीत होगा कि अब मेरी आवश्यकता नहीं, या यह जान जाऊँ कि इस दुनिया में आकर मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया, तब सल्लेखना-व्रत धारण कर मैं स्वयं इन्द्रलोक में जाने का निश्चय कर लूँगी। इसलिए जैसा तुम कहते हो, वाकई वैसी हालत हो क्यों न हो, उसके लिए तुमने जिस मार्ग का अनुसरण किया है वह ठीक नहीं। तुरन्त किसी को भेजकर उन लोगों को वापस बुला लो। मुझे तो ऐसा कोई प्राण-भय नहीं लगता। यदि तुम लोगों को ऐसा भय हो कि मेरे प्राणों को खतरा है, तो चाहो तो यहाँ चारों ओर रक्षक-बल बढ़ा लो। धुआँ जहाँ हो वहाँ आग होगी ही। हवा देने पर तो वह और भड़क उठेगी। अभी इस तरह हवा देने का काम नहीं करना है। जाओ, उनके लौटने पर फिर विचार करेंगे। वह भी तब जब तुम्हें मेरी इन बातों से सन्तोष न हुआ हो।"
मायण चुपचाप ज्यों-का-त्यों बैठा रहा। "क्यों?" "दूसरा कोई उन्हें पहचान नहीं सकेगा। मुझे ही जाना पड़ेगा।" "वहीं करो।" "यहाँ?1 "रेविमय्या से कहो। तुम्हारे लौटने तक मैं दूसरी व्यवस्था करवा दूंगी।" ''जो आज्ञा। बुद्ध-शिविर के समाचार उतने आशादायक नहीं हैं।"
"बुद्ध ही ऐसा है। वहाँ कब कैसे हेर-फेर होते हैं और क्यों होते हैं यह किसी को मालूम नहीं पड़ते । वहाँ के लिए क्या चाहिए सो जानकर, उन्हें वहाँ भेजते रहें तो पर्याप्त है। गुप्तचर को मेरे पास भेजकर तुम रवाना हो जाओ।"
"जो आज्ञा।" मायण चला गया। शान्तलदेवी ने घण्टी बजायी। नौकरानी अन्दर आयो। उससे कहा, "अप्पाजी को बुला लाओ।" थोड़ी ही देर में विनयादित्य आ गया। उसके आने के कुछ देर बाद युद्ध-शिविर का गुप्तचर आया और पट्टमहादेवी को प्रणाम कर बोला
___ "चालुक्य के दामाद जयकेशी की तरफ से लड़ने वाले उस दण्डनायक को पकड़े बिना महासन्निधान राजधानी नहीं लौटेंगे—यही प्रण किया है उन्होंने। अब तक ऐसा शीतयुद्ध उसने शुरू किया है जैसा हमने न देखा न सुना। उसने बंकापुर में पड़ाव डाल रखा है। बाहर से रसद की आवाजाही रोक रखने पर भी उसकी ताकत कम नहीं हुई है। मुझे लगता है तीन-चार साल के लिए उसने रसद जमा कर रखी है। इधर से हमें मिलने वाली सहायता को रोकने के लिए भी उसने बहुत प्रयत्न किये । परन्तु घरदा नदी को पार कर इस तरफ आना उससे हो ही नहीं सका, ऐसी प्रबल रक्षकदल की व्यवस्था पूरे नदी तट पर हमने की है, इसी कारण हम पराजित नहीं हुए। युद्ध का रूप ही कुछ और होता यदि हमारी सेना को आगे बढ़ने का मौका मिलता। फिर तो विजित भागों से धन-धान्य संग्रह हो जाता और हमारी हालत ही बदल जाती। जहाँ हैं वहीं
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288 :: घट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार
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