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"हो सकती हैं। उन नियमों और परम्पराओं को चलने न देने की चतुराई जब हो तो उनका क्या प्रयोजन?''
"इसमें चतुराई की क्या बात?'
"उसके लिए जवाब चाहेंगी तो इसका जवाब दीजिए। सन्निधान के बड़े भैया बल्लाल राजा की मृत्यु और उनके पुत्र नरसिंह की मृत्यु आपके विवाह के बाद ही हुई न?"
"तुम्हारी इस बात का मतलब?"
"अपने ही अन्तःकरण से पूछ लें। आपको मेरे और मेरे पिताजी के प्रति द्वेष है। केवल हम दोनों पर ही नहीं, आचार्यजी के सभी भक्तों पर द्वेष है। आचार्यजी के सामने आपने अच्छा नाटक रचकर उनका मन जीत लिया है, ऐसा आप समझती होंगी किन्तु उन्हें सब पालुम है। आप अन्दर से कुछ और हैं, बाहर से कुछ और, यह भी वे जानते हैं । वे अपने सभी भक्तों को बता गये हैं। भगवान् के सामने हम क्षुद्र मानवों की शक्ति कुछ काम नहीं आती।"
"लक्ष्मी, इस तरह की अविवेकपूर्ण बातों के लिए कोई उत्तर मुझसे नहीं मिलेगा।"
"न मिले तो न सही। मैं अमिती दी जाती हूँ मैं हलदला ले सकती हूँ। बहुत जिद्दी हूँ, याद रहे । अपनी अभिलाषा पूरी होने तक मैं भी चुप बैंठनेवाली नहीं।"
"देखो लक्ष्मी, मैं किसी के लिए अड़चन बनकर नहीं आयी। तुम्हारे लिए भी मैं अड़चन नहीं बनी। ऐसा होता तो तुम्हारे विवाह को ही रोक देती। अकेली तुम्हारा ही क्यों, किसी दूसरे से विवाह करने से सन्निधान को रोक देती। तब सौत की बात ही नहीं उठती। मेरी आकांक्षा है कि सौत भी बहनों की तरह जिएँ। अपनी इस धारणा के कारण ही मैंने स्वीकृति दी। लगता है, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। अब इस बात को सोचने का कोई प्रयोजन नहीं। रही बसदि की बात सो तुमने बात उठागी, इसलिए बताती हूँ। जहाँ उसे बनवाया है, उस जगह पर मेरी और मन्निधान की पहली इच्छा रूपित हुई थी। वहाँ सदा मन को शान्ति-प्रदान करनेवाले शान्तिनाथ स्वामी की प्रतिष्ठा करायी। केवल इतनी बात है। यह शान्ति केवल मेरे लिए ही नहीं, सबको मिले यही मेरी इच्छा रही है। इसी तरह मैं सन्निधान को आचार्यजी के शिष्य बनने से भी रोक सकती थी। सो भी मैंने नहीं किया। दूसरों को संयम का उपदेश देने से यही उत्तम है कि स्वयं अपने को संयम में रखें, यही मेरी रौति रही है। इसी तरह मैंने कभी यह नहीं चाहा कि सन्निधान का सान्निध्य मुझे ही सदा मिले और दैहिक सुख प्राप्त होता रहे। इसे मैंने अपनी अन्य बहनों के लिए छोड़ रखा है।" कहते हुए शान्तलदेवी का अन्तर्मन दुःख से भर उठा।
"आप यों कारण बता सकती हैं। परन्तु दुनिया अन्धी नहीं। उसकी भी आँखें
पट्टपहादेवी शासला : भाग चार :: 257