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"वह कौन-सी कथा है?" ।"महाभारत में दुर्वासा-आतिथ्य की कथा।" "मुझे तो मालूम नहीं।"
"श्री आचार्यजी के आराध्यदेव श्रीम-महाविष्णु के अवतार श्रीकृष्ण भगवान् थे न? उसी कृष्णावतार के समय की वह घटना है। थोड़े में बहुतों को तृप्त करा देने की यह कथा श्रीवैष्णव होकर भी तुम नहीं जानतीं, यह तो आश्चर्य की बात है! हम जिसकी आराधना करते हैं, उसी के जीवन को यदि हम नहीं समझ सकें तो फिर उस आराधना का कोई अर्थ ही नहीं।"
"मेरे पिताजी ने कहा है कि निश्छल मन से आराधना की जाए तो फल जरूर मिलता है।"
"जब कभी वह अन्धविश्वास के लिए आधार भी बन जाता है। अन्धविश्वास भगवान की निजी शक्ति का बोध नहीं करा सकता।"
"तो क्या मेरे पिता विवेकहीन हैं?" "मैंने तुम्हारे पिता की बात कहाँ कही?"
"ऊपर से तो ऐसा ही लगता है। मुझे आपकी बातों से यही ध्वनित होता है कि मेरे पिता ही के विषय में आप कह रही हैं। आपका मन्तव्य तो यही है न कि उनकी भक्ति अन्ध-विश्वास मात्र है !"
"तुम्हारे मुँह से जो बात निकली वह तुम्हारे कथनानुसार यदि तुम्हारे पिताजी की है, तो उसका कोई दूसरा अर्थ सम्भव ही नहीं।''
"श्रीमदाचार्यजी से आगमशास्त्र में पारंगत होने की मान्यता जिन्हें मिली है, उन मेरे पिताजी के विषय में यदि आपके मन में यह धारणा है कि वे अन्धविश्वासी हैं तो उनके गुरु के बारे में कैसी भावना होगी, यह स्वयं स्पष्ट है।"
"इसे लेकर वाद-विवाद करने की मेरी इच्छा नहीं है । हर कोई आत्म-विश्लेषण करके अपने को समझे, तो स्पष्ट हो जाएगा।"
"आप भी अपवाद नहीं हैं न? मैं इतनी प्रभावशाली नहीं कि आपसे लोहा ले सकूँ। मुझे बहन की तरह न मानकर अब सौत की तरह आप क्यों देखती हैं? अपने इस व्यवहार का आपने आत्म-विश्लेषण किया है ?'' बात की दिशा बदल गयो ।
"क्या मैं सौत की तरह देखती हूँ?"
"मुझसे क्यों पूछती हैं? बेलुगोल की कटवप्र पहाड़ी पर आपने जो बसदि बनवायी और शिलालेख लगवाये हैं, वे ही साक्षी हैं।"
"सौत की तरह देखने के लिए मुझे तुमसे कुछ तो असन्तोष होना चाहिए न?"
"सो मुझे क्या मालूम? आपने हम दोनों (पिता-पुत्री) को तिरस्कृत कर रखा है। हम पर विश्वास ही नहीं!''
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 255