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नीति समझ में नहीं आयी।'
" समझने की शक्ति भी नहीं। न सहिष्णुता है, न ही वैसी रुत्रि । अच्छा, जाने दो। अब तो तुम्हें सन्तोष है ?"
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'मेरे सन्तोष के लिए उन्हें यह धर्मदर्शी का पद दिया जा रहा है ?"
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'जब उन्हें धर्मदर्शित्व से मुक्त किया था तो तुम्हें बुरा लगा था न ?" "हाँ, लगा तो था । "
"इसलिए अब तो सन्तुष्ट होना ही चाहिए। इस दिग्विजय से हमारी वापसी तक यहीं दोरसमुद्र में रहोगी या अपने पिता के साथ
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" सन्निधान की क्या इच्छा है ?"
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'अब तुम जहाँ भी रही, अकेली ही न ? इसलिए सन्निधान की इच्छा का कोई प्रश्न हो नहीं। तुम्हारी इच्छा क्या है ?"
" वह बेलापुरी में धर्मदर्शी बनना चाहते थे।"
" अभी जो बेलापुरी में हैं उन्हें स्थानान्तरित नहीं किया जा सकता। वेलापुरी में आचार्यजी की प्रेरणा से विजयनारायण की प्रतिष्ठा हुई हैं, तो तलकाडु में कीर्तिनारायण प्रतिष्ठित हुए हैं। तुम्हारे पिताजी का वहाँ तलकाडु में जाना उचित होगा, यह हमारी राय हैं।"
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'इतनी दूर ?" "कहाँ से दूर ?"
"राजधानी से।"
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'क्या, यादवुपरी निकट है ? वह यहाँ से सात कोस है तो तलकाडु दस कोस,
"
इतना ही।
" उनसे भी वहीं पूछ लेते तो अच्छा होता न ?"
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'तब यह विचार नहीं था । यहाँ आने के बाद हमारी पट्टमहादेवीजी की सलाह पर, प्रधानजी से विचार-विमर्श करके, हमने यह निर्णय लिया है। अगर तुम यहीं रहोगी तो पट्टमहादेवी जी तुमको राजकाज में लगाएँगी और तुम्हें उसके योग्य बनाएँगी । यदि यह सब तुम्हें रुचिकर नहीं तो चुपचाप आराम से रह सकती हो। या फिर चाहो तो तलकाडु जाकर अपने पिता के साथ भी रह सकती हो। उनके साथ रहने को वहाँ तुम्हारे निवास आदि की व्यवस्था भी करवानी पड़ेगी। इसलिए तुम अपना निर्णय बता दो ।"
"थोड़े दिन यहाँ रहकर बाद को वहाँ चली जाऊँगी।" रानी लक्ष्मीदेवी ने कहा। उसका विचार था कि अपने जाने की बात कह दूँ तो पिताजी को वहाँ अधिक सुविधाएँ मिल सकती हैं। पर वास्तव में उसने वहाँ जाने का निर्णय उस समय नहीं
कर पाया था।
274 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार