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तुम उसी का अनुगमन करती हुई सुखी रहो', इतना कहकर उसने बात समाप्त कर दी। बाद को उसने कुछ नहीं कहा। दो चार क्षण वहीं खड़ा रहा, फिर राजमहल में चला गया । इसलिए अब हमें यह सोचना है कि हमें क्या करना चाहिए ।"
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" अप्पाजी, बात आपके कान में पड़ी, इससे आपका मन कलुषित हो गया है। परन्तु एक बात आप भूल गये, मालूम पड़ता है। यह राज्य एक विशाल राज्य है । मजबूत नींव पर जो खड़ा है सो पट्टमहादेवीजी की बुद्धिमत्ता एवं सन्निधान के कर्तव्यपालन के फलस्वरूप ही इस सिंहासन का भविष्य उन दोनों के निर्णय पर ही निर्भर हैं, इस खूसट दास की बात पर नहीं। मैं एक सलाह दूँ?"
"इसीलिए तो तुम्हारे पास आया।'
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'आप सब बातें पट्टमहादेवीजी को बता दें और स्वयं निश्चिन्त हो जाएँ। " ऐसे बना सुन ही नहीं!"
"यही मेरी सलाह हैं। मेरी भी यही रीति है। सिंहासन अपने अपने दैव बल के अनुसार प्राप्त होता है। वास्तव में वह सन्निधान को या उनकी सन्तान आप लोगों को प्राप्त होनेवाला नहीं था। परन्तु वह विधि का लेखा है। आपके बड़े चाचा थे, वे निस्सन्तान ही स्वर्ग सिधार गये। तब आपके पिताजी महाराज बने, और आपकी माता पट्टमहादेवी बर्नी । यह तिरुवरंगदास विधि का लेखा लिखने वाला ब्रह्मा नहीं, इसलिए इन बातों का कोई मूल्य ही नहीं ।"
" परन्तु यह तौर-तरीका कल फूट का कारण होगा न ?"
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'आप तीनों भाई एक बने रहोगे तो फूट के लिए अवकाश ही कहाँ रहेगा ?" "हम तो एक बने रहेंगे। परन्तु वह रानी, और उनका बाप चारों ओर से घेर रखें तो वह एकता को तोड़ने में सहायक हो सकता है न?"
"यह बहुत दूर की बात है। ऐसा होने पर भी वह सिर उठाकर ठहर नहीं सकते । उसके लिए उन्हें इस राज्य में सहायता नहीं मिलेगी, अप्पाजी। फिर भी यह बात पट्टमहादेवीजी को बता दें, यहीं अच्छा है।"
अन्त में विनयादित्य ने अपनी माँ के पास जाकर यह बात छेड़ दी और जोजो शंकाएँ उसके मन में थीं, उन्हें बता दीं।
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अप्पाजी, तुमने जो बातें कहीं, वे सब सच हैं। ये सारी बातें सन्निधान और मैं दोनों जानते हैं। मैंने यह कल्पना भी नहीं की थी कि तुम इन सब बातों की जानकारी रखते हो। परन्तु जब तुमको उनकी जानकारी हो ही गयी है तो मैं कुछ और भी बताऊँगी जो तुम नहीं जानते । "
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'जो बातें मुझे उद्यान में मालूम हुई वे भी आपको मालूम हैं, माँ ?"
"मालूम हैं, अप्पाजी। यह समाचार सन्निधान तक भी पहुँच चुका है। इसे रहने दो। तुमने जो सुना वह उनके मन की आकांक्षा का प्रतिबिम्ब है। उन दास की आकांक्षा
282 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार