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" तो एक और बात, रेविमय्या ! यह तिरुवरंगदास है न..."
"हीं हैं उनकी क्या बात है ?"
"तुमने मुझे पोय्सल वंश का इतिहास बताया है । परन्तु किसी भी प्रसंग में उसका नाम तक नहीं लिया। क्यों ?"
"यह आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ इसलिए नहीं कहा।"
'क्यों आवश्यक नहीं ? सुनता हूँ कि वह धर्म के नाम पर एक तरह की गुटबन्दी करने की बात सोच रहा है ?"
रेत्रिमय्या ने तुरन्त उत्तर नहीं दिया।
"क्यों रेविमय्या, यह सच नहीं ?"
"देखो अप्पाजी, यह बात आपको मालूम कैसे हुई, यह मैं नहीं जानता । उसमें सचाई कितनी है यही इस पर निर्भर करता है कि वह किसके जरिये बाहर आयी है। इसलिए...
??
"मुझसे किसने कहा, इसे छोड़ो ! तुम तो सोचकर इतना भर बताओ कि यह बात उठानी चाहिए या नहीं।"
"ऐसा नहीं अप्पाजी, चुगलखोरों का मन साफ नहीं रहता। दूसरों की बुराई करना ही उनका लक्ष्य होता है, इसलिए पूछा । "
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'तो मेरे भाई बल्लालदेव ऐसे चुगलखोर हैं ?"
"ऐसा कहूँ तो मेरे मुँह में कोड़े। वह कहते हैं तो सत्य होना चाहिए। किस प्रसंग में यह बात आपसे कही ?"
" बेलुगोल में शान्तिनाथ भगवान् की स्थापना के सन्दर्भ में उस समय न वह छोटी रानी माँ आर्थी, न उनका वह पिता ही आया। तब हम वहीं बातचीत कर रहे थे। हमारे साथ बिट्टियण्णा भी थे। तब कहा था। तब से मुझे उस तिरुवरंगदास के प्रति घृणा - सी हो गयी है। सुनता हूँ कि उसकी इस तरह की हरकतों से क्षुब्ध होकर उन्हें धर्मदर्शित्व से भी हटा दिया गया था!"
"राष्ट्र की भलाई के लिए महाराज को कई बार अवांछित काम भी करने पड़ते
हैं । "
" तो अब क्यों उसे फिर से यह मान्यता दे दी गयी ? फिर से धर्मदर्शी की हैसियत से उसे नियुक्त क्यों किया गया ?"
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'जब पट्टमहादेवीजी ने स्वीकार किया है तो यह काम ठीक ही होना चाहिए।" 'शायद। लेकिन अगर फिर ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो जाए तो क्या करना
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होगा ?"
" सम्भवतः फिर ऐसी स्थिति न आए, इसी विश्वास पर ऐसा निर्णय किया गया
होगा । "
280 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार
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