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'अगर मैं उनसे पूछ सकता तो तुमसे यह प्रश्न ही क्यों करता, रेविभय्या ?"
"तो क्या आप पट्टमहादेवीजी से नहीं पूछेंगे ?"
"नहीं।"
"क्यों ?"
" तुम ही जब नहीं बताते तो वे बताएंगी क्या ?"
"देखो अप्पाजी, मैं एक साधारण नौकर ठहरा। मालिकों के बारे में मेरा कुछ कहना उचित नहीं है । मेरा सम्पूर्ण जीवन ही इसी तरह गुजरा हैं। परन्तु पट्टमहादेवीजी सबसे ऊपर हैं। उनके कहने में कोई रोक-रुकावट नहीं।"
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"तो क्या तुम समझते हो कि वे कहेंगी?"
" यह आपके सवाल करने के ढंग पर निर्भर करता है, और उस सम्बन्ध में आपकी जानकारी कितनी है, और कैसे मालूम हुआ, आदि बातों पर भी । "
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'ओह! इसीलिए तुमने पूछा था कि कोई और भी कारण हैं ?"
"हाँ, आपको अगर मालूम हो तो बताएँ, अप्पाजी ! "
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"नहीं बताते।"
"कोई जबरदस्ती नहीं। एरेयंग प्रभु के समय से लेकर आज तक किसी ने किसी भी बात को उद्देश्यपूर्वक मुझसे छिपाये नहीं रखा। उन सभी ने मुझ पर विश्वास रखा था, कभी मनसा वाचा कर्मणा मैंने विश्वासघात नहीं किया। बड़े चलिकेनायक और मैं, केवल हम दो ही इस राजवंश के पूरे-पूरे विश्वासपात्र रहे हैं।"
"दूसरे लोगों पर विश्वास नहीं रखते थे ?"
'ऐसा नहीं। जिससे जो कहना चाहिए, सो कहा जाता था। सभी को सब बातें मालूम नहीं होती थीं। परन्तु हम दोनों को सभी बातें मालूम रहती थीं। महाप्रधान गंगराज को भी सभी बातें मालूम होती रही हैं, ऐसा मत समझो अप्पाजी!"
"
'यह नयी बात सुन रहा हूँ. आज तुम्हारे मुँह से ! ऐसी भी बातें होती हैं जिन्हें प्रधानजी को भी नहीं बताया जाता ?"
" होती हैं, अप्पाजी। आप पट्टमहादेवीजी से ही पूछ लें। वे बताएँगी आपको। बड़े हेगड़े मारसिंगय्याजी एरेचंग प्रभुजी के प्रिय और जाने-माने हेग्गड़े रहे। इस पर वे समधी भी बने। परन्तु उन्हें भी सभी बातें बतायी जाती रहीं, यह न समझें। इस राजमहल की बात ही कुछ ऐसी हैं। दो रहे तो एकान्त, तीन हुए तो अनेकान्त " 'तब ठीक हैं। तुम्हारी सलाह के अनुसार मैं माँ से ही पूछूंगा। तब बात एकान्त
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ही बनी रहेगी। राजमहल की रीति के अनुरूप भी होगी वह है न?"
"वही करें अप्पाजी, वही उचित मार्ग है।"
"तुम्हें असन्तोष तो नहीं होगा न ?"
" असन्तोष और मैं, दोनों एक-दूसरे के बैरी हैं। वह मेरे पास फटकता तक
नहीं।"
घट्टमहादेवी शान्तला भाग नार : 279