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आवश्यकता हुई तो अवश्य बुलवा लेंगे - यह भी निर्देश था ।
सभी कार्य-कलाप सप्ताह के अन्त तक समाप्त हो गये। महाराज युद्ध-शिविर की ओर चल दिये। काफी लोग राजधानी की तरफ रवाना हुए। आमन्त्रित अन्य जन अपने-अपने घर चले गये। कुमार बल्लाल वहीं ठहर गये। उसके सलाहकार की हैसियत से मारसिंगय्याजी भी नहीं ठहरे रहे। यह कहने की जरूरत नहीं कि मानिकवे भी पति के साथ वहीं रुक गर्यो ।
विवाह के अवसर पर हरियलदेवी आयी थी। उसकी गोदी में छह महीने की बच्ची थी। दण्डनायक भरत की इच्छा थी इसलिए उसका शान्तला नाम रखा गया था। विवाहोपरान्त हरियला अपनी सास के साथ यादवपुरी चली गयी।
रानी लक्ष्मीदेवी ने कुछ दिन राजधानी में ठहरने के लिए अपने पिता से कहा । ये परिणाम यह हुआ कि अपने पुत्र के साथ शीघ्र तलकाडु चली गयी। किसी तरह का रक्त सम्बन्ध न रहने पर भी उससे भी ज्यादा अपनापन होने के कारण रेविमय्या पट्टमहादेवी और विनयादित्य, इन दोनों के साथ बना रहा। वह वृद्ध हो चला था, अतः उसे किसी काम में नहीं लगाया गया था। वह एक तरह से अवकाश प्राप्त जीवन बिता रहा था। अपना अधिक समय वह राजकुमार विनयादित्य के साथ व्यतीत करता। पोय्सल राज्य को स्थिरता देने वाले राजा विनयादित्य के समय में राजमहल की सभी बातों से रेविमय्या परिचित था । परदादा के जमाने से आज तक गुजरी सभी बातें रेविमय्या ने विनयादित्य से कहकर, उसके मन में अपूर्व जोश भर दिया था। पोय्सल वंश की कोई भी बात या ऐतिहासिक घटना बताता तो उसके मुँह से पट्टमहादेवी शान्तलदेवी को बात अनायास ही निकल पड़ती। उनके बारे में बातें करते-करते यह अत्यन्त भावुक हो जाता। अपनी माँ के प्रति रेविमय्या की भावना और उसके विचार जानकर, विनयादित्य के हृदय में उसके प्रति विशेष आदरभाव पैदा हो गया। रेविमय्या की बातें सुनना एक तरह से विनयादित्य के लिए मिष्टान्न भोजन-सा होता । सुनकर उसे लगा कि क्यों न माँ के इन सारे गुणों को वह आत्मसात् कर ले। उसने समझ लिया कि द्वेष और असूया के स्थान में प्रेम और आदर का भाव बढ़ाकर सभी को अपनाना श्रेष्ठ राज मार्ग हैं। वह अपने माँ-बाप जैसा बुद्धिमान् था भी। सारी बातों को जानने और समझने का सहज कुतूहल भी उसमें था। हर दिन का पाठ-प्रवचन का अभ्यास, और अन्य क्षत्रियोचित शिक्षण के साथ, अन्य विषयों को भी यह जानने-समझने का प्रयत्न करता। मानव को आदर्श व्यक्ति बनना हो तो दूसरों को समझने का प्रयत्न करना आवश्यक हैं, उसके मन में यह बात अच्छी तरह पैठ गयी। फलतः वह 'मानव-स्वभाव का अध्ययन करने लगा। उसे किसी के बारे में कुछ सन्देह होता तो वह रेविमय्या से चर्चा कर लिया करता ।
रानी लक्ष्मीदेवी के अपने पिता के साथ तलकाडु चले जाने के बाद, एक दिन
276 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार
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