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कुमार बल्लाल और छोटे बिट्टिदेव ध्यान से सारी बातें सुन रहे थे। राजकुमार होने की वजह से बहुत सी बातों की जानकारी उन्हें भी हुआ करती थीं। उन्हें अपनी शक्ति-सामर्थ्य का प्रदर्शन करने का उत्साह भी बहुत था। उनकी भी इच्छा हो रही थी कि कुछ बोलें । परन्तु बड़ों के आगे बोलना उचित न समझकर और स्वयं को अभी अनुभवहीन जानकर अपनी इस इच्छा को दबाये रहे।
पट्टमहादेवी ने राजलदेवी की ओर देखा। यदि कुछ कहना चाहे तो यह भी कुछ कहे, यही उनका मन्तव्य था। उसने कभी कुछ बोलने की बात सोची ही नहीं। आज भी उसकी यही स्थिति रही। इसलिए उसने नकारात्मक भावना से सिर हिला दिया।
अब निर्णय एक तरह से हो चुका. र देना पहिः ।
वित्तसचिव मादिराज ने कहा, "तो आर्थिक क्षमता बढ़ाने के लिए क्या-क्या करना होगा, इस पर भी विचार कर लेना अच्छा होगा।"
बिट्टिदेव ने कहा, "अभी हम छठा हिस्सा कर के रूप में ले रहे हैं। उसे प्रस्तुत सन्दर्भ में पाँचवाँ हिस्सा कर दें। यही एक रास्ता है।"
पट्टमहादेवी ने सलाह दी, "लेकिन यह वृद्धि स्थायी न रहे। फिलहाल दो साल के लिए इसे लागू किया जाए। इसकी सूचना भी प्रसारित कर देना संगत होगा।"
मादिराज बोले, "एक बार देने लगे तो वहीं आदत पड़ जाएगा। इसलिए उसे कम करने का कोई कारण नहीं। इस कर को स्थायी बना देने से ऐसे अनिरीक्षित समयों में आवश्यकतापूर्ति करने के लिए पर्याप्त धन-संग्रह किया जा सकता है।"
पट्टमहादेवी शान्तलदेवी ने कहा, "वित्त-सचिव को सदा ही धन की चिन्ता रहती है। कर का बोझ कम करने की ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता। धनियों के लिए यह कर-भार बोझ न लगेगा, परन्तु राज्य में सभी धनी नहीं हैं, इस ओर भी ध्यान देना चाहिए। फिलहाल दो साल के लिए यह वृद्धि बनी रहे । मैं यह नहीं कहती कि राज्य की मूल सम्पदा को बढ़ाना नहीं चाहिए। इसलिए आप अब जिन करों का विधान कर रहे हैं और आगे कौन कर लगाए जा सकेंगे. इन पर विचार कीजिए।''
मादिराज ने कहा, "मेरी एक छोटी-सी सलाह है। राज्य में रहनेवाले सभी मन्दिरों के लिए अनेक तरह के दान-धर्म और सेवा-कार्यों से धन-संग्रह हो रहा है। प्रत्येक मन्दिर की आय उस मन्दिर के लिए पूरी खर्च नहीं की जाती। यों हर वर्ष वह वचत बढ़ती जा रही है। स्थायी निधि के रूप में उसकी वृद्धि हो रही है। उस निधि का पूर्ण उपयोग न करने पर भी; आंशिक रूप में आवश्यकता पूर्ति के लिए उसे काम में लाया जा सकता है, ऐसा मेरा विचार है।"
रानी लक्ष्मीदेवी अचानक बोली उठी, "मन्दिर के धन का इस्तेमाल करना ठीक नहीं। वह केवल धर्म-प्रसार के लिए ही खर्च किया जाए, यही श्री आचार्य जी कहा करते थे।"
पट्टमहादेवो शान्तला : भाग चार :: 265