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केलहत्ति नायक बोले, "रानीजी का कहना ठीक है।" बिट्टिदेव ने पूछा, "गंगराजजी आपके गुरु क्या कहते थे ?"
"पट्टमहादेवीजी से ही पूछ सकते हैं। मेरे गुरु अब इन्द्रलोक सिधार गये हैं। मगर पट्टमहादेवीजी के गुरुवर्य हमारे साथ हैं।" गंगराज ने कहा ।
'भगवान् मानव हित के लिए है। इस धन का विनियोग पोय्सल राज्य के हित के लिए करना उचित है। हमारे गुरु लोक-कल्याण ही चाहते हैं। मुझे लगता है श्री आचार्यजी भी इसका विरोध नहीं करेंगे।" शान्तलदेवी ने कहा।
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"तो क्या मैं झूठ बोल रही हूँ" लक्षमीदेवी से दुत महा
शान्तलदेवी ने कहा, "मेरा मतलब यह नहीं । कोई जानबूझ कर झूठ क्यों कहेगा ? परन्तु महात्माओं की बातें और उनका निर्धार ठीक मालूम न होने पर, बात सत्य से परे होने पर भी सत्य सी लगती है।"
"शिवालय, जिनालय के स्वत्वों का जो चाहे विनियोग कर लें। परन्तु केशत्र मन्दिरों के स्वत्वों का इस्तेमाल न करें तो ठीक है।" लक्ष्मीदेवी ने एक निर्णयात्मक स्वर में अपना विचार प्रस्तुत किया।
मादिराज ने कहा, "राज्य में जब एक नियम अस्तित्व में आकर चालू हो जाता है तो किसी तरह के भेदभाव का विचार नहीं किया जा सकता, रानीजी को शायद इसका खयाल नहीं रहा होगा।"
रानी लक्ष्मीदेवी बोली, "इस बहाने शायद केशवालयों के अस्तित्व को मिटा देने का विचार है। आचार्यजी जब से इस राज्य को छोड़कर गये तब से एक न एक तरह से उनके भक्त सताये जा रहे हैं।"
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बिट्टिदेव ने कुछ तेज होकर कहा, "रानीजी जानती हों तो बता दें कौन-कौन, कब, किसके द्वारा सताया गया है। कानों सुनी बात को प्रमाण मानकर, उस आधार पर यों नहीं कह बैठना चाहिए। "
साहस बाँधकर आखिर में लक्ष्मीदेवी ने पूछ ही लिया, "स्वयं सन्निधान ने ही मेरे पिताजी को देश निकाले का दण्ड देने के बारे में नहीं कहा ?"
त्रिदेव बोले, "हाँ, कहा। पर ऐसा किया नहीं। हमें अब लग रहा है कि वैसा न करके हमने गलत किया। इस राज्य में किसी भी धर्म के प्रति कोई अपचार कभी नहीं हुआ है। परन्तु व्यक्ति किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों न हो, राष्ट्रद्रोह के कार्य में लगे तो उसे दण्ड देना ही होगा। एचिराज, बाद को जो कहना चाह रहे थे वह अब कह सकते हो।"
एचिराज उठ खड़े हुए और अनुमति माँगने की-सी दृष्टि से पिता की ओर
गंगराज धीरे से उठ खड़े हुए। बोले, "मेरी एक विनम्र प्रार्थना है। इस समय
206 :: पट्टमहादेवी शातला भाग चार
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