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अपेक्षा है। हमारा यह प्रेम और विश्वास कभी किसी भी हालत में कम न हो।"
"नारी यदि किसी को समर्पित होती है, तो वह पूरे जीवन के लिए होती है, किसी काल-परिमाण के लिए नहीं।"
"परन्तु सभी नारियाँ ऐसी ही होंगी, इस पर विश्वास कैसे करें? तुम्हारी बात ही अलग है।"
"लगता है, सन्निधान नारी के व्यक्तिगत प्रेम-सम्बन्ध के साथ उसकी आशा . आकांक्षाओं को नहीं जोड़ रहे हैं। एक दुष्ट स्त्री भी एक ही से प्रेम करके उसे सफल बनाने का प्रयत्न करती है। इसलिए सन्निधान युद्ध-यात्रा पर रवाना होने से पहले रानी लात्मीदेवी को संगसुख दें, यही अच्छा होगा। सन्निधान जब से यहाँ आये तब से उधर नहीं गये, यही सुना है।"
"जहाँ इच्छा न हो वहाँ कैसे जाएँ?" "कुमार नरसिंह के रहते हुए यह सवाल करें तो?"
"तब की भावना ही दूसरी थी। अब ऐसा नहीं है । वह अन्य किसी पर दोषारोपण करती तो हम सह लेते । परन्तु जिन्हें हम अत्यन्त आदर और गौरव से देखते हैं, जो हमारे लिए मूर्तरूप विश्वास हैं, ऐसी पट्टमहादेवी के प्रति उसका इतना दुर्भाव! और तो और, इस पट्टमहादेवी के स्थान पर प्रतिष्ठित होने के उद्देश्य से शेष सभी का तिरस्कार? ऐसी बात उसके मुँह से स्वयं सुनकर भी हम चुप बने रहें? उसके मुंह गरे जब यह बात निकली तो साा कि उसका गला घोंट दें। परन्तु तुमसे हमने संयम का पाठ जो पढ़ा था, हम चुप रहे । इसलिए हम इस विषय में अब और किसी की नहीं सुनेंगे।"
"मुझे जो लगा, मैंने आपसे निवेदन किया है। मैं फिर भी कहूँगी कि आग बुझाना हो तो हवा नहीं, पानी डालना होता है। आगे सन्निधान की मर्जी।"
"अब यह बात समाप्त करें । गुरुजी से पृछकर यात्रा के लिए मुहूर्त निकलवाना
"शिल्पी जकणाचार्यजी होते तो पूछते ही मुहूर्त बता देते।"
"एक बार उनके गाँव क्रीड़ापुर जाना है। लेकिन अब जो भी करता है, इस दिग्विजय से लौटने पर ही।"
"वे अपने गाँव में एक मन्दिर का निर्माण करवा रहे हैं। उसे पूरा करके उसकी प्रतिष्ठा के अवसर पर बुलानेवाले हैं । सन्निधान की दिग्विजय और वह कार्य-दोनों शायद एक साथ आ जुड़ें। सन्निधान के कहे अनुसार, गुरुजी को बुलवाकर, मुहूर्त निकलवा लूंगी। सन्निधान सदा की तरह बम्मलदेवी, चट्टलदेवी और मायण को साथ ले जाएँ।"
"लगता है, अब की बार राजलदेवी ने भी युद्ध में चलने का निश्चय किया है।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 271