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"रानी अगर इसका विरोध करें तो?"
"उसे मालूम हो तब न, बताएँग ही नहीं। जैसा तुमने कहा, वह और कुमार नरसिंह यही रहा"
"इस तरह करना-कराना मन को ठीक नहीं ऊँचता । सो भी आत्मीयों के साथ! न-न। रानी के मन में जो कडुआहट आ गया है, उसे दूर करने का प्रयत्न मैं भी करूंगी। जो भी हो, यह धर्मान्धता राष्ट्र की एकता को नष्ट न करे. इतना भर पर्याप्त
"प्रयत्न तो कर सकती हो। किन्तु मुझे विश्वास नहीं कि ऐसा बदलाव आ जाएगा। कहावत है न 'नीच का संग मान भंग'। वातावरण कुछ ऐसा ही बन गया है। वैसे इसके मूल में हम ही कारण हैं। आल्म-संयम खोकर एक बुरी घड़ी में हम भावना में बहकर आचार्य के शिष्य हो जाने की बात कह बैठे। तब हमने पट्टमहादेवी की बात मानी नहीं। बात मानकर उसी तरह चलते तो आज यह स्थिति ही उत्पन्न न हुई होती।"
"अब इस बारे में सोचने की जरूरत नहीं। इसको चौदह वर्ष गुजर चुके हैं। ज्यों-त्यों दिन बीतते जा रहे हैं। खुजली शरीर को जब लग जाती है तो उसको चाहे कितनी भी दवा करें, पूर्ण रूप से मिटती नहीं । तात्कालिक रूप से थोड़ी-बहुत अच्छी हुई-सी लगने पर भी, मौसम बदलने के साथ फिर बढ़ने लग जाती है। पूरी तरह से वह शरीर का साथ नहीं छोड़ती। यह भी ऐसा ही है। इसलिए कुछ-न-कुछ उपचार करते हुए, तात्कालिक रूप से ही सही, शमन करते रहना होगा। इसलिए सन्निधान को इस बारे में बहुत चिन्तित होने की जरूरत नहीं।"
"इस सम्बन्ध में सोच-विचार करने के लिए हमारे पास समय ही कहाँ ? परन्तु चिन्ता न करें तो सारी झंझट का बोझ तुम पर लादने का-सा होगा न? एक काम करेंगे। वह तो एक तरह से हठीली है। उसे भविष्य का ध्यान कहाँ? इसलिए वह चाहे तो जाकर यादवपुरी ही में रहे। उसे रोककर हम क्यों परेशानी मोल लें?"
"तिरुवरंगदास को यदि तलकाडु भेज दें तो फिर छोटी रानी यादवपुरी क्यों जाएगी?"
"यह भी सच है। तो रानी को तलकाहु न भेजें?"
"रानी को बता दें कि तलकाडु भेजने की सोची है। तब उसको प्रतिक्रिया देखकर बाद में निर्णय कर लें।"
"यही ठोक लगता है। ऐसा ही करेंगे। प्रसंगवश हम अपने हृदय को एक बात और कह देना चाहते हैं। पट्टमहादेवी के विषय में इस भूमण्डल पर कोई चाहे कुछ भो कहे, खबर फैलाए, दुष्ट कहकर दोषारोपण करे, हम कभी भी, किसी भी कारण से, अपने आपसी प्रेम और विश्वास को नहीं खोएँगे। पट्टमहादेवीजी से हमें ऐसी ही
270 :: पमहादेवो शान्तला : भाग चार