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पट्टमहादेखी जब महाराज के दशम करने आया तो छहरा देखते ही महाराज को ऐसा लगा कि आज वह हमेशा की तरह प्रसन्न नहीं हैं । बिट्टिदेव ने कहा, "बैठो देवि, इस तरह हमारे द्वारा एकाएक निर्णय ले लेने के कारण यदि परेशान हुई हो तो हमें क्षमा करो। सच देवि, हमने तुम्हारी उदारता का बहुत दुरुपयोग किया है। अब हमें ही इस पोड़ा को भोगना होगा। वह कष्ट तुम्हें अथवा तुम्हारी सन्तान को न हो, इसलिए हमने तुमसे सलाह किये बिना ही तुम्हारे दो प्रबुद्ध बेटों को यहाँ के वातावरण से दूर रखने का निर्णय लिया है। भविष्य में क्या होगा, कौन जाने। फिर भी अब जो अपस्वर निकला है वह पीछे चलकर जोर पकड़ सकता है। इसलिए अभी से तुम्हारी सन्तान को स्वतन्त्र रूप से राज्य संचालन का मौका मिले, यह ध्यान में रखकर ही ऐसा निर्णय लेना पड़ा है। वे अपने अधिकार-क्षेत्र में राज्य-निर्वहण करते हुए प्रजा के प्रीतिपात्र बनें। वही प्रीति उनके लिए रक्षा-कवच बनेगी। और थोड़े समय के बाद विनय को भी इसी तरह एक भाग की जिम्मेदारी देने का निश्चय किया है। तुम अपने लिए कुछ न चाहने वाली, निर्लिप्त हो। कल तुम कहोगी कि मेरे बच्चों को कुछ नहीं चाहिए। दूसरों के सुख के लिए और उनकी आशा-आकांक्षाओं को सफल बनाने के लिए, अपना सब-कुछ त्याग कर देने के लिए भी तैयार हो जाओगी। इसलिए इस विषय में तुमसे सलाह लेना ठीक नहीं है, यही मानकर हमने स्वयं ही यह सब निर्णय कर लिया। इसके लिए तुम परेशान मत होओ। रानी लक्ष्मीदेवी को मन्त्रालोचना-सभा में बुलाने पर तुमने जोर दिया, सो हमने मान लिया था। उस रानी का मन कूपमण्डक जैसा है, यह आज की सभा में स्पष्ट हो गया है। अब तुमसे हमें यही कहना है कि अपनी इस उदारता को कुछ कम करेंगी तो अच्छा होगा। है न?"
शान्तलदेवी ने तुरन्त कुछ जवाब नहीं दिया। वास्तव में उन्हें इस बात की आशा नहीं थी कि उन्हें देखते ही बिट्टिदेव इतना सब कुछ बता बैठेंगे। उन्होंने अनुभव किया कि उनकी बातों में भविष्य की चिन्ता कितनी समा गयी है और उनका हृदय कितना दुखी है। उन्होंने यह भी समझ लिया रानी लक्ष्मीदेवी और बिट्टिदेव के बीच यादवपुरी और बेलुगोल में जो बातचीत हुई उसको पृष्ठभूमि में उनकी ये बातें अर्थपूर्ण भी हैं। उनके दुखी हृदय को और दुखी करना दुस्साध्य था शान्तलदेवी के लिए। इसलिए वह सोचने लगी कि क्या बातचीत की जाए।
"सन्निधान के निर्णयों के बारे में मैं असन्तोष जताने नहीं आयी। यह आक्रमण यदि कुछ समय के लिए टल सकता हो तो इस बीच कुमार बल्लाल का विवाह क्यों न करा दिया जाए, यही पूछने चली आयी। एक बार आक्रमण शुरू हुए तो यह कहा नहीं जा सकता कि वे कब तक होते रहेंगे। सन्निधान के साथ सिंगिमय्या और कुमार बल्लाल दोनों हैं ही। इसलिए सोच विचार कर निर्णय कर लें तो कैसा हो?" कहकर शान्तलदेवी ने बात बदल दी। सचमुच वह इस बात को उठाना ही नहीं चाहती थीं।
268 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग सार