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पुनःस्थापित हो, ऐसी सन्निधान की इच्छा रही है। उन्होंने और पट्टमहादेवी ने इस दिशा में प्रयत्न करने के उद्देश्य से चालुक्य पिरियरसीजी को माध्यम बनाकर मैत्री-साधन के लिए आस्थान कवि नागचन्द्रजी को वहाँ भेजा भी था। कन्त्रि का प्रयत्न भी सफल नहीं हुआ। ऐसी हालत में अब हमारे सोचने को कुछ नहीं रहा। एकमात्र सन्निधान की सलाह को शिरोधार्य कर लेना ठीक लग रहा है।'' रायण दण्डनाथ ने कहा।
बोपदेव, कलदहत्ति नायक और घरत ने भी करीब-करीब यही राय दी।
पट्टमहादेवी ने अपनी राय नहीं दी। और उसी तरह बुजुर्ग मारसिंगय्याजी ने भी कुछ नहीं कहा। वे दोनों भी अपनी-अपनी सलाह दें तो अच्छा 1 सचित्र मादिराज घोले।
मारसिंगय्या ने कहा, "हमारे समय से अब आप सब एक पीढ़ी आगे बढ़ आये हैं। इसलिए ऐसे मौके पर हमारा मौन रहना अच्छा है। क्योंकि हमेशा से यह क्रम चलता आया है कि नयी पीढ़ी के सामने पुरानी पीढ़ी का सोच अधिक कारगर नहीं होता। लगता है, आज की युवा पीढ़ी की गति हमारी गति-सीमा से कहीं अधिक है। इसलिए हम मौन रहें, यही अच्छा है। फिर भी लगता है कि एक बात का निवेदन कर ढूँ। मेरी इस बात के लिए एचिराजजी की बातें ही प्रेरक हैं। हमारी पीढ़ी के लोगों में धर्म के मामले में सहिष्णुता की भावना रही आयी। सभी धर्म मानवीय मूल्यों को स्थापित करने पर बल देते हैं। इसे समझे बिना हमारा ही धर्म श्रेष्ठ है कहकर, अपने को सर्वाधिकारी मानकर, अपनी बात को मनवाने की कोशिश शायद आज की पीढ़ी की अभिलाषा हो। इसीलिए प्रधानजी और उनके घराने वालों के पतधर्मों की सेवाएँ टीका-टिप्पणी का विषय बनी हुई हैं। इस तरह की धर्म सम्बन्धी टीका-टिप्पणी अन्दर-ही-अन्दर चलनेवाला आन्तरिक युद्ध है। एचिराज ने ठीक ही बताया। ऐसी भावना लोगों में फैलने लग जाए तो पन्थ बन जाएंगे। इससे राज्य में दुष्प्रवृत्तियों को बढ़ने का मौका हो, उससे पहले ही ऐसी गुटबन्दियों को खतम करने के लिए विचार किया जाना चाहिए।
बम्मलदेवी ने कहा, "बुजुर्ग हेगड़ेजी की बात राज्य के आन्तरिक कल्याण की दृष्टि से सर्वथा मान्य है। यह सोचकर प्रस्तावित विषय को स्थगित करने की जरूरत नहीं। जब समूचे राष्ट्र की बात सामने उपस्थित होती है तब वैयक्तिक मत-वैभिन्न्य नहीं रह जाता। इसलिए अब यदि हमला करने की तैयारी करनी हैं, तो उत्पन्न हुए भेद भाव स्वतः खत्म हो जाएँगे। इसलिए हमला करने की राय उचित है। और फिर, ये चालुक्य स्वार्थी हो गये हैं। मैं और बहन राजलदेवी भी इसकी साक्षी हैं । पट्टमहादेवीजी की उदारता ने हमें एक व्यक्तित्व दिया है। हमारा कण्टकमय जीवन निष्कण्टक हुआ। पोय्सल राज्य को भी निष्कण्टक बनना हो तो चालुक्यों के आगे बढ़ने से पहले ही हमें उनकी शक्ति को तोड़ देना चाहिए।"
264 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार