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सही है । परन्तु हमें अपनी आर्थिक क्षमता को आँक लेना होगा। यह सच है कि अभी कुछ समय से युद्ध न होने से राज्य के खजाने में धन जमा हुआ है। और, कर र - वसूली भी अधिक हुई हैं। निस्पृह अधिकारियों ने नियमानुसार कर उगाहा भी है और अन आर्थिक स्थिति अच्छी हैं। ऐसे ही आहार सामग्री की भी कमी नहीं। ग्रामीण क्षेत्रों में अनाज का संग्रह भी पर्याप्त है। रसद को चिन्ता नहीं, परन्तु सन्निधान के कहे अनुसार, पहले हम ही आक्रमण करें और यदि ऐसा ही निर्णय होता है तो हमारे पास जो भण्डार है वह पूरा नहीं पड़ेगा। इस हमले की बात फैल जाएगी तो राज्य के चारों ओर के और राज्य चौकन्ने हो जाएँगे। चालुक्यों के साथ युद्ध करने के माने चेंगाव - कोंगाल्वों पर हमला करना नहीं। यह हम सब जानते हैं। अपने को अजेय समझनेवाले चोल, जो हमसे हार गये हैं, इस मौके पर दक्षिण की तरफ से हमें परेशान करेंगे ही, यह बात असम्भव नहीं। इसलिए राज्य की अन्य सीमाओं पर, प्रबल रक्षक दल को तैनात रखना होगा। राज्य का विस्तार हो जाने से अब इसकी सुरक्षा पहले से कहीं अधिक खर्चीली होगी। इतनी सब व्यवस्था करने के लिए हमारे खजाने में धन नहीं है। इसलिए आर्थिक सन्तुलन का रास्ता ढूंढ़े बिना, इस काम में लगना कहाँ तक ठीक होगा, यह विचारणीय हूँ ।"
बिट्टियण्णा ने बड़े उत्साह से कहा, "पहले हमें स्वयं को मजबूत बनाना होगा। इसके लिए आवश्यक व्यवस्था का मार्ग तो ढूँढ़ना ही होगा। मगर इसके लिए हम समय को व्यर्थ गंवा बैठे रहें और शत्रु हमला कर बैठे तो? आर्थिक स्थिति की बात लेकर हम चूड़ियाँ पहने बैठे रह सकेंगे ? आत्मरक्षा के लिए शत्रु का सामना जितना आवश्यक हैं, राज्य के गौरव की रक्षा के लिए किया जानेवाला हमला भी उतना ही जरूरी हो जाता है। इसके लिए हमें आगे बढ़ना ही होगा। ऐसा ही निर्णय उचित लग रहा है। अपर्याप्त धन के लिए संग्रह करने की बात भी मान्य है । "
पुनीसमय्या बोले, "राज्य का आत्मगौरव बनाये रखना प्रमुख कार्य है। इस बारे में चिड़ियाणा की बात मेरे लिए मान्य हैं। परन्तु परिस्थिति का पूर्ण रूप से मूल्यांकन कर विमर्श करने के बाद ही निर्णय लें तो ठीक होगा। मुझे तो ऐसा नहीं लगता कि चालुक्य फिर हम पर हमला करने की सोचेंगे।"
दण्डनाथ एचिराज ने कहा, "मेरी माँ-दादी और घराने के गुरुवर्य शुभचन्द्र जी के सात्त्विक जीवन की मधुस्मृति में, हमारे घराने के लोगों द्वारा अपने ही धन से बनवाये गये मन्दिरों के बारे में राज्य में सुनाई देनेवाली बातों की याद जब आती है तो लगता है कि अपने ही राज्य में हमारे शत्रु हैं। पहले इन शत्रुओं का निर्मूलन हो, बाद को दूर के हमलों की या राज्य विस्तार की बात पर सोचना-विचारना युक्तिसंगत होगा ।"
262 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार