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'सन्निधान ऐसे नहीं हैं। "
"मेरे साथ तो ऐसा ही हुआ है ।"
"मैं विश्वास ही नहीं कर सकती।'
"हमें यहाँ आये कितने महीने गुजर गये ?"
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'चार-पाँच महीने हुए होंगे।"
" एक बार भी सन्निधान की दृष्टि मेरी ओर नहीं पड़ी। जाने दें, कम-से-कम बच्चे की ओर तो होनी चाहिए थी न?"
" पुरुषों और बच्चों के बीच सदा ऐसा ही व्यवहार हुआ करता है। देखो, मैं चार बच्चों की माँ हूँ। इन बच्चों के प्रति भी उनका ऐसा ही व्यवहार है। ज्यादा लगाव नहीं रखते। इसके यह माने नहीं कि बच्चों के प्रति प्रेम और वात्सल्य नहीं। उनका स्वभाव ही ऐसा है। मगर इन बच्चों को कुछ सर्दी-जुकाम हो जाए तो समझते हैं पहाड़ ही सिर पर आ गिरा। हम स्त्रियों को चाहिए कि पुरुष को समझें। "
" परन्तु बम्मलदेवी और राजलदेवी के साथ जो समय बिताते हैं, उसमें से थोड़ा मेरे लिए और थोड़ा आपके लिए सुरक्षित क्यों नहीं रखते ?"
"लक्ष्मी, हम सब एक ही आश्रय में रहती हैं। ऐसा जब कभी होता है तो वैसी स्थिति सहज ही पैदा हो जाती है। अब तो तुम्हारी तरह में आतंकित होती ही नहीं।" 'वह तो सहज हैं। सबसे पहले आप ही उनकी परिणीता हैं और काफी समय
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तक आपका एकाधिकार उन पर रहा है, सुख भोग भोग चुकी हैं।"
"सदा-सर्वदा मेरे हृदय में वे रहते हैं, इसलिए जुदाई का भाव ही नहीं आता । यहाँ तो अधिकार की बात ही नहीं उठती । "
"मैं इसमें विश्वास नहीं करती। "
"क्यों ?"
" पास में रहकर भी दूसरों को सुख देते रहें तो हमको सुख कैसे प्राप्त होगा ?"
"
'हमें नहीं मिल रहा, दूसरों को मिल रहा है--- इस तरह का मनोभाव बन जाए
तो वहाँ अतृप्ति होती हैं और आगे चलकर वही असूया और मात्सर्य का कारण बनती है। स्त्री अपने मन में इनके लिए स्थान देगी तो परिवार में हलाहल ही भरेगा । "
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न-न,
" आप संन्यासियों की तरह बात कर रही हैं। इस पर विश्वास कैसे किया जाए ? सन्निधान पास में न रहें, फिर भी उनके पास में रहने की कल्पना कर लेना... यह सब मुझसे नहीं हो सकेगा। यदि कोई कहे कि ऐसी कल्पना की जा सकती है तो वह झूठ हैं। "
"मतलब ?"
"बिना भोजन किये कभी भूख मिट सकेगी ?"
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'अक्षय पात्र का एक दाना कितनों के पेट भर सका, यह कथा तुमको मालूम है ?"
254 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार