________________
उसका वहाँ हार्दिक स्वागत हुआ। परन्तु उसे सूझा नहीं कि क्या कहना चाहिए। चुपचाप बैठी रही। शान्तलदेवी तब कुछ पढ़ने में तल्लीन थीं । लक्ष्मीदेवी को मौन बैठी देखकर उन्होंने पूछा, "कुंवरजी कहाँ है? अकेली आयी हो न?"
''वह सो रहा है। मुद्दला वहीं है। यों ही चली आयी। अकेली बैठी-बैठी परेशान-सी हो रही थी।
"क्यों, ऐसी क्या बात है? यहाँ व्यस्त रहना चाहो तो बहुत अवकाश है. तब परेशानी का कोई कारण नहीं रहेगा।"
"मैं क्या कर सकूँगी? मैं तो कुछ नहीं जानती। मैं कुछ भी जानती हूँ वह केवल खाना बनाने का काम मात्र है। रानी बन जाने से अब उसके लिए भी मौका नहीं।"
''यह बताओ कि तुम्हें किस विषय में दिलचस्पी है, उसके लिए आवश्यक व्यवस्था की जा सकती है। साहित्य पढ़ना चाहो तो यहाँ काफी बड़ा ग्रन्थागार है। तुम्हारे लिए योग्य गुरु की नियुक्ति की व्यवस्था की भी जा सकती है। संगीत सीखना चाहो तो उसके लिए भी व्यवस्था हो जाएगी।"
"इन सब विद्याओं में निपुणता आपने पायी है, आपके समक्ष अब मैं पढ़ने लगूं तो लोग हँसेंगे।"
"लोगों का इससे क्या सम्बन्ध है ? विद्या सीखकर जिस आनन्द का अनुभव करोगो वह अपना निजी होगा। इसलिए यदि तुम्हारी इच्छा मालूम हो जाए तो उसके अनुसार व्यवस्था करवा दूंगी।"
"इस उम्र में वह सब सीखना मेरे लिए सम्भव होगा?"
"सरस्वती कोई भेदभाव नहीं रखती, लक्ष्मी! यदि हार्दिक अभिलाषा हो तो वह प्रसन्न होगी।"
"उसके प्रसन्न होने से क्या होगा?"
"अच्छी बात कही! सवाल करती हो कि उसके प्रसन्न होने से क्या होगा? हमारी संस्कृति के विकास के लिए सरस्वती ही मूल-प्रेरणादात्री है । चौसठ विद्याओं का वरदान भी उन्हीं से प्राप्त होता है।"
"सुना है कि उन चौंसठ विद्याओं में चोरी भी एक है।" "किसने कहा?" "कभी एक बार मेरे पिताजी ने कहा था।" "प्रसंग?" "सो तो याद नहीं।"
"अच्छा जाने दो। उनके कथनानुसार वह भी एक विद्या है, सही। परन्तु विद्या को सीखने वाले उसका उपयोग किस तरह से करते हैं, और फिर उस विद्या को सीखने का उद्देश्य क्या है, सो जाना जा सकता है।"
252 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार