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सी मुझे लग रही है. सन्निधान ने जिस धर्म को स्वीकारा, उसे मैंने स्वीकार नहीं किया, इसलिए मैं उस धर्म को टेष| मानी गयी हूँ, ऐसा लग रहा है। मैं तो अपने धर्म की छोड़ नहीं सकती। मैं पट्टमहादेवी के पद को त्याग सकती हूँ। यह घोषित कर सकती हूँ कि परी सन्तान को यह सिंहासन नहीं चाहिए। मैं अपना शेष जीवन संन्यासिनी बनकर बिता सकती हूँ। मैं अन्य धर्म-द्वेषी भी नहीं हो सकती। मुझ पर यह आरोप न हो।" शान्तलदेवी का स्वर उद्वेगपूर्ण था।
विट्टिदेव चकित हो शान्तलदेवी की ओर देखने लगे और बोले, "कैसे-कैसे माके आये-गये, कभी तुमने संयम नहीं खोया। आज ऐसा क्यों? हम कुछ कहने आये तो तुम हमें कहीं और घसीटे ले जा रही हो!"
शान्तलदेवी ने आतंकित होकर पूछा, "सन्निधान ने तिरुवरंगदासजी को देश निकाले का दण्ड देने की बात कही थी?"
बिट्टिदेव कुछ गम्भीर हो गये। क्षण-भर मौन रहे। फिर बोले, "देवी, अब हम सारी बात समझ गये । इस सम्बन्ध में हम स्वयं ब्यौरेवार बता देंगे। फिलहाल एक शुभ समाचार है।"
"क्या?"
"जयकेशी जो हमारी ही तरह स्वतन्त्र होना चाहता था, वह अब चालुक्य विक्रमादित्य का दामाद बन गया है।"
"सच?"
"सच। इसलिए हमने शुभ समाचार कहा। हमारे भी भुज बेकार रहकर हमें निदाल कर रहे थे। अब उनके लिए योग्य काम मिल गया।"
"तो क्या यह जयकेशी चालुक्यों की तरफ से हम पर हमला करेगा?।।
"न। उसमें इतना साहस ही कहाँ? चालुक्य दण्डनायक अचुगी मे उसकी भुजाओं को तोड़ रखा है। उनके हमला करने से पहले ही हम हमला न करें तो आगे चलकर तकलीफ उठानी पड़ेगी। इसलिए इस सम्बन्ध में विचार करने के उद्देश्य से कल एक गुप्त मन्त्रणा-सभा को बुलाया है।"
"अच्छा, इस मन्त्रणा-सभा में कौन-कौन उपस्थित होंगे, इसका भी निर्णय किया होगा?"
"यह कैसा नया सवाल है ! पट्टमहादेवी नहीं जानी ?" "बात जानने के लिए ही तो पूछा।"
"केवल इतना ही नहीं, जिन्हें सूचना देने से हम चूक गये हों, उन्हें भी इस सभा में बुलवाने की सलाह पट्टमहादेवी से मिल सकेगी।"
"पहले सन्निधान बताएँ तो!" "प्रधानजी, दण्डनायक, मन्त्रिमण और पट्टमहादेवी।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 250