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"विश्वास अपने व्यवहार से प्राप्त होने वाली एक प्रशस्ति है । मात्र इच्छा करने से मिलने वाली चीज नहीं । वह मन्त्र-शक्ति से प्राप्त नहीं होती, या बाजार में बिकनेवाली चीज भी नहीं।"
___ "मैं आपके समान ज्ञानी नहीं हूँ। फिर भी मुझमें अकल है। मुझे भी चार-पाँच साल हो गये राजमहल की हवा खाये। मैं समझ सकती हूँ। मेरे भी आँख और कान हैं। सूंघ सकती हूँ, रुचि को पहचान भो सकती हूँ।"
"तुम्हारे मन में क्या है, उसे स्पष्ट कह दो। पहेली मत बुझाओ।"
"पहेली नहीं। मेरे और मेरे पिताजी के प्रति सन्निधान के मन में सन्देह पैदा करनेवाली की मात ही समस्या बन गया है। चाहें तो उन्हों से पूछ ले।'
"क्या! सन्निधान के मन में शंका पैदा कर दी गयी है ! किसने की और क्यों?''
"आप-जैसे आत्म-विश्लेषण करनेवालों को इस तरह अनजान बनकर तो नहीं बोलना चाहिए। मेरे पिताजी को देश-निकाले का दण्ड देने की बात सन्निधान ने जो कही, उसका क्या कारण है?"
"सन्निधान ने किससे कहा?"
"मुझसे ही। इतने दिन मैं मौन रही। अन्दर-ही-अन्दर अंतड़ियाँ जल रही हैं तब से। यदि सन्निधान कहें कि आपके पिताजी को देश से निकाल देंगे तो आपके मन पर क्या बीतेगी?"
"किस सन्दर्भ में? सन्निधान ऐसी जल्दबाजी में कह देनेवाले तो हैं नहीं?'' "मेरी अकल मोटी है। यह सब मुझे मालूम नहीं। उन्हीं से पूछ लीजिए।" "कम-से-कम यह तो बताओ कि कारण क्या है?" "कितनी बार कहूँ? अभी बताया न! सवतिगन्धवारण विरुद और वह शिलालेख।"
"तो तुम मुझ पर सौतिया-डाह का आरोप लगा रही हो? वह डाह केवल तुम ही पर या..."
शान्तलदेवी की बात पूरी होने से पहले ही लक्ष्मीदेवी बोल उठी, "अगर उनके बच्चे हुए होते तो उन पर भी यह सौतिया-डाह होती। मेरे पुत्र हुआ, यही इस जलन का कारण है, यह तो स्पष्ट है।" बात कहते-कहते उसका मुंह लाल हो उठा।
"लक्ष्मी ! किसी ने तुम्हारे मन को बिगाड़ रखा है। तुम्हें यदि पुत्र हुआ तो मुझे जलन क्यों हो, बताओ तो? तुमने क्या यही समझा कि मैं अपने सिवा किसी और को माँ बनते नहीं देखना चाहती?"
"सभी माँओं के बच्चे पोय्सल राजवंश के नहीं होते।" "पोय्सल वंश के सभी बच्चे आगे चलकर राजा नहीं बनते।' "क्यों नहीं बन सकते?" "राजा बनने के लिए नियम होते हैं, परम्पराएं होती हैं।"
256 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार