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"अभी थोड़ी देर हुई, राजकुमार को नींद आ गयी है। सन्निधान के आने के समय पर यह शुभ लक्षण है।" वैद्यजी ने कहा।
''साथ में दो और पुण्यात्मा भी पधारे हैं। राजकुमार नरसिंह ठीक महाराज का ही प्रतिरूप है।" शान्तलदेवी ने कहा।
"ओह ! मुझे यह मालूम नहीं था कि वे आएंगे। क्षमा करें। यह विषमशीत ज्वर है। संक्रामक है। सो भी छोटी उम्र के बच्चों को बहुत ही जल्दी लग सकता है। इसलिए छोटे राजकुमार को दूर ही रखना अच्छा है।' वैद्यजी ने कहा।
"पट्टमहादेवीजी को यह सब मालुम ही है न?"
"हाँ-हाँ, फिर भी जब से राजकुमार बीमार हुए तब से जो कष्ट अनुभव किया और जैसे दिन काटे उस सारे वृत्तान्त को जानते हुए, मैं सोच रहा था कि यह सब विचार करने की मानसिक स्थिति ही रही होगी, इसलिए मार"
"अच्छा वैद्यजी, अब तो जगदल सोमनाथ पण्डितजी भी आ गये हैं। इससे कोई विशेष चिन्ता नहीं।" शान्तलदेवी ने कहा। वैद्यजी ज्यों-के-त्यों खड़े रहे।
"हम पट्टमहादेवी के साथ रहेंगे। सोमनाथ पण्डितजी भी स्नान और जप-तप के बाद आएँगे। आप भी हो आइए।'' बिट्टिदेव बोले।
प्रणाम कर पण्डितजी चले गये।
राजदम्पती पलंग के पास रखे आसनों पर बैठ गये। कुछ क्षणों के बाद शान्तलदेवी उठीं, दरवाजे तक गयीं और नौकरानी से कुछ कहकर आ गयीं। फिर बिट्टिदेव से बोली, "जलपान की व्यवस्था करने के लिए कह आयी हूँ। सन्निधान हाथ-पैर धो लें और उपाहार स्वीकार करें। कुमार भी अभी सोया हुआ है।"
"हमें भूख ही नहीं।"
"जितना खा सकें। यात्रा की थकावट और परेशानी के कारण ऐसा लग रहा है। भूखे तो रह नहीं सकेंगे न? अलावा इसके, यहाँ के रसोइया सन्निधान की रुचि से परिचित हैं और आज आपके पधारने की उन्हें जानकारी भी है।"
"पता नहीं क्यों, ऐसा लग रहा है कि कुछ नहीं चाहिए।"
"बीमारी आती भी है तो मनुष्यों को ही न? पत्थर को नहीं। इसके लिए परेशान क्यों होते हैं?''
"जल्दी में हमें बुलवा लेने की क्या जरूरत पड़ी थी?"
"यह सब बाद में बताऊँगी। अभी भोजनालय जाने के लिए सन्निधान तैयार हों।"
"पता नहीं, हमें ऐसा लगने लगा कि समय बदल गया है। अब तक जो सन्तोष और उत्साह था वह कम होने लगा है।''
"ऐसा होने का कारण भी तो होगा न?"
250 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार