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"चोरी करने की विद्या सीखने का उद्देश्य दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करना ही है न! उसका और क्या उद्देश्य हो सकता है?"
"हम जिस विद्या को सीखते हैं, उसका उपयोग ऐसे करना चाहिए जिससे दुसरों की हानि न हो।"
"चोरी का फल बुराई ही हैं न? उससे किसी का क्या भला हो सकता है?''
।"पेट भरने के लिए चोरी करें तो बुराई होगी, जैसा अभी तुमने ही बताया । परन्तु राष्ट्र पर जब शत्रु हमला करे, तब शत्रु के बल को कम करने के लिए इस विद्या के अनुसार अपहरण करना बुरा नहीं होता। युद्ध में शत्रु को मारना एक सहज न्यायव्यापार है न? ऐसे ही तन्त्र यह भी न्याय-व्यवहार है।"
"सदा युद्ध चलता रह तो इस विद्या का सदपयोग होता है। जब युद्ध न हो तो चोर बेकार चुप बैठा रह सकता है ? सीखी हुई विद्या के प्रयोग करते रहने की अभिलाषा होना सहज ही है न?"
"ठीक है। अविवेकियों के लिए किसी भी विद्या का कोई प्रयोजन नहीं क्योंकि वे जो सीखते हैं, उसका स्वार्थ के लिए उपयोग करता है।"
"सो तो सत्य है। अपने को विवेचना सामर्थ्ययुक्त और विवेकी समझने वाले भी प्रायः अपने स्वार्थ के लिए उस सीखी विद्या का उपयोग करते देखे गये हैं।" लक्ष्मीदेवी ने एक तरह से व्यंग्य करते हुए कहा।
"ऐसा भी होता है, लक्ष्मी। इसलिए हमें, जो राजमहल में रहती हैं, ऐसे स्वार्थियों से सदा सतर्क रहना चाहिए। क्योंकि ऐसे स्वार्थी एकता को तोड़कर सुख और शान्ति का नाश ही करेंगे।"
"हो सकता है। परन्तु यहाँ, इस राजमहल में, पट्टमहादेवीजी की वाणी ही वेदवाक्य है। ऐसी दशा में ऐसे स्वार्थी भी हार मानेंगे न?"
"पट्टमहादेवी भी आखिर एक स्त्री है । लोग उसे आत्मीयता से देखते हैं तो वह उनकी उदारता है। उनकी उदारता पर जोर डालें तो वे भी दूर हर जाएंगे। इसलिए हमें अधिकार के बल का प्रयोग नहीं, बल्कि उनसे स्नेह-प्यार पाने के लिए अधिक से अधिक प्रयत्नशील होना चाहिए।"
"जो भी सामने पड़े, वहीं अनादर करे तो कोई प्रेम पाए भी कैसे?" 'वह स्त्री की सहज शक्ति है । अब तुम सन्निधान का प्रेम पाकर पुत्रवती बनी
न?"
"परन्तु वही दुसरों की आँखों में किरकिरी बने तो उसकी जिम्मेदार मैं हूँ?" "ऐसे विचार आने का क्या कारण है?"
"सो मैं क्या जानती हूँ? मैंने सन्निधान से जो प्रेम पाया, लगता है उसे अब खो बैठी हूँ।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 253