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अशा होता, तब यों न होता-इस तरह पछताने की स्थिति पैदा न हो, इसलिए कह रहा हूँ। आगे भी कहता रहूँगा। यदि तुम्हें मेरी बात सही लगे तो करना ! मैंने जो कहा उससे डरकर गलत कदम रखकर मेरी निन्दा करना भी उचित नहीं। अगला कदम क्या है सो तुम ही सोचकर निर्णय कर लो। अभी तो सन्निधान गहरे दुख में हैं। जो भी कहोगी उसे उनका दुःखो मन स्वीकार कर लेगा।" इतना कहकर तिरुवरंगदास ने अपनी बेटी की ओर देखा।
लग रहा था कि वह गम्भीर चिन्ता में डूबी हुई है। इसलिए आगे कुछ नहीं बोला। उसने सोचा, 'पासा ठीक पड़ा है। अत्र तो गोट चला ही देनी होगी।' यों थोड़ी देर बैठे रहकर उठ खड़ा हुआ। रानी वैसी ही चिन्तामग्न बैंठो रही तो उसने कहा, "बेटी, मुझे कुछ और भी काप है।"
"जा रहे हैं ! अच्छा।" कहती हुई वह भी हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई। कन्धे पर से फिसलने वाले अपने अंगवस्त्र को सँभालता हुआ तिरुवरंगदास चला गया।
तिरुवरंगदास की सारी बातें रानी लक्ष्मीदेवी के दिमाग में भर चुकी थीं। उन्हें रोकने और उन पर विचार करने या दिमाग से निकाल देने की उसमें ताकत नहीं थी। आगे क्या करे सो उसे सूझ नहीं रहा था, इसलिए वह चुपचाप बैठी रही। पिता चाहे कुछ भी कहें, कितना भी कहें, पट्टमहादेवी के विषय में वह उस तरह से सोच ही नहीं पा रही थी। परन्तु वह भी तो मेरी ही जैसी एक स्त्री हैं। मेरी तरह उसके भी मन में आकांक्षाएँ होती हों तो यह कोई असहज बात तो नहीं!' साथ ही उसके लिए यह भी नहीं लगता था कि वह अपने पिता की आत्मीयता में शंका करे। पिता. जिन्होंने ऐसी उन्नत स्थिति में लाकर बिठाया, ...उनके विषय में शंका कहीं हो सकती है? उसका विश्वास था कि पिता ऐसी सलाह देंगे भी कैसे कि जिससे हानि हो 1 उधर, 'पाणिग्रहण करनेवाले महान् व्यक्ति हैं। मेरे समस्त सौभाग्य के लिए तो वे ही कारण हैं। वे तो सभी आश्रितों के प्रति समान प्रेप रखते हैं। बड़े उदार हैं। ऐसे व्यक्ति का मन खट्टा कर वहाँ भेद-भाव पैदा करना कभी सम्भव हो सकेगा? अब तक तो सब प्रकार से सुखी हूँ। सापके प्रेमपात्र बने रहनेवाले और सबका मन जीत सकनेवाल्ने ऐसे व्यक्ति के मन में भेद-भाव पैदा करने पर, वहीं पीछे चलकर मेरे प्रति अनादर का भाव पैदा होने का हेतु बने तो मेरे बेटे का भविष्य क्या होगा? मैं जो भी करूं, उससे किसी तरह की परेशानी मेरे बेटे के लिए पैदा न हो, मुझे वैसा चलना होगा। आचार्यजी ने पिताजी से जो भी कहा या न कहा हो, उससे मेरा कोई सरोकार नहीं। धर्म का मेरे साथ कोई सम्बन्ध नहीं । धर्म का प्रसार तो पुरुषों का कार्य है। पाणिग्रहण करनेवाले अपने स्वामी का अनुसरण करना मात्र हमारा धर्म है। फिलहाल चुप रहना ही अच्छा है। अगर कुछ छेड़ें और सन्निधान असन्तुष्ट होकर दोरसमुद्र की ओर चल पड़ें तो मुझ अकेली का जीवन कैसे करेगा? उनके सान्निध्य में रहने से बढ़कर और किमी तरह का सुख मुझे
पट्टमहादेवी शान्तला : भा. चार :: 241