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"अन्य किसी तरह की विघ्न-बाधा न होने पर वह कथन ठीक हो सकता है। जरूरी राजकाज के होने पर उस कथन से बँधे नहीं रह सकते। आवश्यक कार्य के लिए जाना पड़े तो जाना ही होगा।"
"बात क्या है, जान सकगी।।
"छोटे राजकुमार विनयादित्य का स्वास्थ्य अभी एक सप्ताह से अच्छा नहीं है। वैद्यों का कहना है कि उन्हें विषम शीत ज्वर हो गया है। इसलिए कल ही जाने का निश्चय किया है।"
"छोटे बच्चे को लेकर इतने कम समय में जाने की तैयारी कैसे कर सकूँगी?" 'कोई जबरदस्ती नहीं। हमें तो जाना ही होगा।" "मुझ अकेली को यहाँ रहना पड़ेगा?" "यह बचपना है। वस्तुस्थिति बताने पर जल्दी निर्णय कर लेना होता है।''
"सुनते हैं कि यह बुखार संक्रामक है। छोटे बच्चे को साथ ले जाना. ठीक होगा?"
"हमने कहा न कि कोई जोर-जबरदस्ती नहीं!" "सन्निधान अगर न भी गये तो क्या हो जाएगा?" "वह हमसे सम्बन्धित बात है।" "हो सकता है, सन्निधान को वहाँ बुलवाने का यह एक बहाना ही हो?"
"पट्टमहादेवी रानी लक्ष्मीदेवी जैसी नहीं।" कहते हुए बिट्टिदेव की आवाज कुछ सख्त हो गयी।
"रानी लक्ष्मी ने क्या किया?" उसे भी गुस्सा चढ़ आया था। वह आग-बबूला हो उठी।
"बच्चे की बीमारी का बहाना किया, झुठ बोली, इसलिए कि जिससे बेलुगोल न जाना पड़े।"
"जो काम मेरी पसन्द का नहीं, उसे करने को कहें तो मैं क्या करूँ?"
"कहने का साहस होना चाहिए था कि नहीं जाऊँगी। उस बेचारे बच्चे की बीमारी का बहाना क्यों किया?"
"मैं साहस करूँ तो वह सह्य होगा?" "सत्य के लिए किया जाने वाला साहस हमारे लिए सदा सम है।"
"ऐसा है ? तो बताइए कि उदयादित्यरस की मृत्यु का क्या कारण है? कभी सोचा है?" उसने तीर छोड़ा।
'इसके माने?" आवाज कुछ ऊँची थी।
''मुझे क्या मालूम? मैं तो एक स्त्री ही हूँ, राजमहल का अन्न खाती पड़ी रहनेवाली । अधिकार-सूत्र अपने हाथ में ले, सभी को कठपुतलियों की तरह नचानेवाली
पट्टमहादेवी शाम्तला : भाग चार :: 243