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नहीं चाहिए। उनके सानिध्य में रहने के लिए जो भी उचित होगा उसे करना ही मेरा कर्तव्य होना चाहिए। ऐसा सब विचार कर वह एक निश्चय पर पहुँच गयी। अपने मानसिक संघर्ष को उसने यो विश्राम दिया।
फिर महाराज का दुःख दूर करने की इच्छा से, तथा अपनी व्यक्तिगत अभिलाषाओं को पूरा कर लेने के लिए जैसा आचरण करना चाहिए था, वैसा ही उसने व्यवहार किया। उसने अपने पिता से जो बातें सुनी थीं उन्हें सुनाकर भ्रातृ वियोग से दुखी महाराज को और दुखी बनाना नहीं चाहा ।
दिन पर दिन गुजरते गये। धीरे-धीरे बिट्टिदेव का दुःख कम हुआ। ऐसे दुःखों को दूर करने के लिए समय ही अच्छा वैद्य है। कुमार नरसिंह की बाल-लीलाएँ उनके मानसिक दु:ख को कुछ कम करने में सहायक बनीं।
महामो पर महीने बीस बढ़। तिवादास पारोस्थतियों में परिधान की प्रतीक्षा करते बैठा था। जब उसे कुछ भी परिवर्तन न दिखा तो कुछ उद्विग्न भी हुआ। एक दिन मौका पाकर वह अपनी बेटी से फिर उन्हीं पुरानी बातों को छेड़ बैठा।
लक्ष्मीदेवी ने कहा, "पिताजी, आपको जो कुछ कहना था सो कह चुके हैं न? पहले मुझे अपने सुख-सन्तोष का ध्यान रखना है। फिर देखेंगे। जल्दबाजी करने से हानि भी हो सकती है।"
उसने कहा, "बेटी, मैं जानता हूँ कि तुम इतनी होशियार हो, मगर भाई के वियोग का दुःख शान्त हो जाने के बाद, उस मृत्यु के बारे में शंका उत्पन्न करना कठिन होगा।"
लक्ष्मीदेवी ने कड़ककर कहा, "पिताजी, आपकी जल्दबाजी मुझे अच्छी नहीं लगती। अपने सुख के लिए और अपने कार्य की सफलता के लिए क्या करना होगा, यह मैं जानती हूँ। आप चुप रहें । बार-बार इस बात को सुनाते रहेंगे तो मैं सन्निधान से कहकर वेलापुरी या दोरसमुद्र चली जाऊँगी।"
"ठीक है, तुम्हारी जैसी इच्छा। तुम सजग रही, इतना काफी है।" कहकर तिरुवरंगदास वहाँ से चल पड़ा। बेटी के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही वह चल पड़ा था। मन-ही-मन सोच रहा था कि वह शायद भयभीत हो, इसीलिए उसकी यह स्थिति है। वह कुछ और उपाय सोचने लगा। इसी धुन में वह अपने मुकाम पर आ गया।
कुछ समय बाद एक दिन बिट्टिदेव बोले, "दोरसमुद्र से खबर आयी हैं, इसलिए वहाँ जाना पड़ेगा। अगर रानीजी साथ चलना चाहें तो लेते जाएँगे।"
“शिवालय का काम ही है न?'लक्ष्मीदेवी ने एक तरह की अनासक्ति का भाव दिखाया।
"नहीं।" "उसके पूरा होने तक यहीं रहने की बात सन्निधान ने कही थी न?"
242 :: पट्टमहादेवी शासला : भाग चार