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से तो नहीं होगा। मैं आचार्यजी के प्रस्थान के पहले उनसे गुप्त रूप से मिला था। उनके लिए धर्म का प्रसार सबसे मुख्य विषय हैं । इसीलिए उन्होंने पट्टमहादेवी से विरोध मोल नहीं लिया। करीब एक दशक से उन्होंने मुझ जैसे निष्ठावान धर्म-प्रचारकों को पोय्सल राज्य में यत्र-तत्र-सर्वत्र इस काम के लिए भेज रखा है। उन सभी धर्म-प्रचारकों का सहयोग मुझे प्राप्त है। मैं जैसा कहूँ, वैसा तुम करी। बाद में सब स्वत: ठीक हो जाएगा। तुम्हें धीरज से काम लेना होगा। धीरज खो बैठोगी तो कल के दिन महाराज भी हाथ से निकल जाएँगे। फिर तुम्हारे बेटे को भिखारी बनकर भटकना पड़ेगा।"
"ऐसा तो नहीं होना चाहिए। मेरे बेटे को तो ऐसे ही राजा होकर रहना है।"
"तो उसे उस तरह ढालना तुम्हारे हाथ में है। तुम स्वयं कहो तो आक्षेप हो सकता है। बच्चे के मुंह से कहलाओ तो उसका परिणाम हो कुछ और होगा। तुम स्थिति को समझकर व्यवहार करो, बेटो । बच्चे के बढ़ने तक प्रतीक्षा में बैठी मत रहो। दूध को खराब करना हो तो उसमें खटाई डालनी ही पड़ेगी न? अधिक खटाई की भी आवश्यकता नहीं। एक बूंद पर्याप्त है। यह सब तुम्हारे बेटे नरसिंह के लिए हैं। मैं भी नहीं सोचता कि तुम्हारा काम आसान है। फिर भी तुम्हें साधना ही पड़ेगा। तुम्हारे बेटे के लिए आचार्यजी का हृदय से आशीष है हो। तुम्हें राजमाता बनना है। तभी महाराज को प्रमुख पत्नी कहला सकोगी। पट्टमहादेवी ने जो सब किया है सो एक-एक कर तुम्हें समय पर मैं बताता रहूँगा, उनमें से कुछ संकेत तो आचार्यजी ही मुझे दे गये हैं। मैंने पूछा था, 'ऐसी दशा में आप पट्टमहादेवी को इतना क्यों मानते हैं ?' तो उन्होंने कहा, 'यही तो लोक-व्यवहार है। महाराज के साथ पट्टमहादेवी भी मतान्तरित हो जाती तो बात कुछ और ही होती। नये स्थान पर आकर यदि हम यहाँ विवध मोल लें तो हमारा काम बने कैसे? इसलिए हँसते-हँसते सब सह लेना पड़ा। हम इस राज्य को छोड़कर जा रहे हैं, इसलिए हमारे शिष्य होकर आप लोगों को, हमारा नाम लिय बिना, लक्ष्य को साधना होगा। देश-भर में विष्ण-मन्दिरों का निर्माण कराना होगा। लोगों को विष्णु-भक्त बनाना होगा। उनको छोड़ अन्य देव नहीं । सब का बही कारणकर्ता है।' यह सब उन्होंने मुझे बताया है, इसलिए तुम्हें डरने की कोई बात नहीं । युक्ति से काम साध लो। प्रकट में हमें व्यावहारिक रीति से चलना होगा, आचार्यजी की तरह। हमें अन्दर ही अन्दर अपना काम करते रहना है।"
"पिताजी, आपकी बातों से मुझे भय ही अधिक लगता है। अभी मुझे किस बात की कमी है ? मेरे बेटे के लिए किस बात की कमी है ? ऐसे ही हँसते-खेलते दिन गुजार सकते हैं।" लक्ष्मीदेवी ने कहा।
"देखो, जो कुछ भी कहना-करना हैं, वह सब तुम्हारी ही भलाई के लिए। जब-तब मुझे प्रतीत होगा, उसे बताता रहूँगा। मेरा यह कहना कर्तव्य है कि अमुक काम करो और अमुक मत करो। कल मुझे पछताना न पड़े। पहले ही बता देता तो
2410 :: पट्टमहन्दवी शान्तला : भाग चार